SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुरुषार्थसिद्धय पाय ] १०१ ] सुखका एकदेश ( एकअंश ) भी प्रगट हो जाता है । इसीलिये सम्यग्दृष्टि जीवोंको सिद्धोंकी तुलना दी जाती है; कारण जिस आत्मीय सच्चे सुखका पूर्ण अनुभव सिद्धभगवान् एवं अर्हत्परमेष्ठी करते हैं, उसी सुखका एकदेश अनुभव सम्यग्दृष्टि जीव करते हैं । चाहे मनुष्य हो, चाहे देव हो, चाहे तिर्यंच हो और चाहे नारकी हो, किसी भी पर्यायमें जीव क्यों न हो, सम्यग्दृष्टिकी अवस्थामें वह वहीं आत्मीय सुखका अनुभोका बन जाता है। जब अंतरंगमें सम्यग्दृष्टिमात्रके स्वानुभूतिका होना अवश्यम्भावी है, तब वाह्यमें उसका 'उपलक्षण चाहे देवगुरुशास्त्रका श्रद्धान कहा जाय, चाहे तत्त्वार्थश्रद्धान कहा जाय, चाहे प्रशम संवेग अनुकंपा आस्तिक्य कहा जाय; सभी अभिन्न पड़ते हैं, किसीमें कोई विरोध नहीं है । दूसरी बात यह है कि जिस जीवके तत्त्वार्थश्रद्धान होगा, उसके देवगुरुशास्त्रका श्रद्धान अवश्य होगा । जिसके देवशास्त्रगुरुका श्रद्धान होगा, उसके तत्वश्रद्धान अथवा आस्तिक्यादिक भाव भी अवश्य होंगे । कारण जो देवशास्त्रगुरु पर पूर्ण श्रद्धान रखता है, वह सर्वज्ञदेव-कथित आचार्य-वचनों (जिनवाणी ) पर पूर्ण विश्वासी अर्थात् तत्त्वश्रद्धानी अवश्य होता है । इसीप्रकार जो तत्त्वोंका यथार्थ श्रद्धानी है, वह देवगुरुशास्त्रका भी अवश्य श्रद्धानी है; कारण देवगुरुशास्त्र भी तो तत्वोंमें आ चुके, इसलिये तत्वश्रद्धानी, देव. गुरुशास्त्र-श्रद्धानी, दोनों ही एक अर्थके द्योतक हैं । किसी एकके कहनेसे दोनों तीनों वाह्यलक्षणोंका समावेश हो जाता है। जो देवगुरुशास्त्रका श्रद्धानी है, तत्त्वार्थश्रद्धानी है, उसके परिणामोंमें प्रशम संवेग अनुकम्पा आस्तिक्यभावोंका संचार होता ही रहता है । इसलिये जो भिन्न भिन्न सम्यक्त्वके वाह्यलक्षण हैं वे सब एक ही हैं, केवल शब्दनिरूपणामें भेद है। इतना अवश्य है कि ये सभी वाह्यलक्षण स्वानुभूतिके सद्भावमें सम्यक्वस्वरूप हैं, बिना स्वानुभूतिके सम्यक्त्वके कारणरूप हैं । ऐसी अवस्थामें १. लक्ष्यके लक्षणको भी उपलक्षण कहते हैं; और उपचरित लक्षणको भो उपलक्षण कहते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001104
Book TitlePurusharthsiddhyupay Hindi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMakkhanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year1995
Total Pages460
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy