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[ पुरुषार्थसिद्धय काय
रहेगा । अथवा सम्यग्दृष्टिके भी मिथ्याज्ञान होना चाहिये, क्योंकि वहां भी ज्ञानावरणका अच्छे या बुरे रूपमें कमसे उदय- अनुदय होता रहेगा । परन्तु वैसा होता नहीं है। न तो मिथ्यादृष्टिके सम्यग्ज्ञान होता है और न सम्यग्दृष्टिके मिथ्याज्ञान । इसलिये ज्ञान के यथार्थ अयथार्थ विशेषण दूसरे के सम्बन्धसे प्राप्त है, और वह सम्बन्ध दर्शनमोहनीयकर्म है । जबतक जीवके उसका उदय रहता है तबतक वह जीव पदार्थों में उलटी प्रतीति करता है और उसीके अनुसार उसका ज्ञान भी उलटा प्रतिभास करता है | जिससमय दर्शनमोहका उदय उस जीवके नहीं रहता, उससमय उसकी पदार्थों पर यथार्थ प्रतीति होती है; उसके अनुसार उसका ज्ञान भी उन्हें यथार्थ जानने लगता है । जैसे आंख के नीचेके पलकपर उंगली लगा लेनेसे दो चंद्रमा दिखाई देते हैं और ज्ञान भी दो चंद्रमाका होता है - दो चंद्रमाओंके न होनेपर भी दर्शन में भ्रम रहनेसे ज्ञान में भी भ्रम रहता है, उसीप्रकार मिथ्यादर्शनके रहनेसे पदार्थों का विपरीत श्रद्धान होनेसे उसके साथ होनेवाला ज्ञान भी मिथ्या होता है। जिससमय आत्मामें उस मियादर्शन के अभाव होनेपर सम्यग्दर्शन प्रगट हो जाता है, उससमय मिथ्याप्रतीति आत्मासे एकदम दूर हो जाती है तथा आत्मा पदार्थों का यथार्थ प्रतिभास करने लगता है । उसकी बुद्धि भी पदार्थों को यथार्थ रूप से ही ग्रहण करती है । सम्यक्त्वगुणका यही माहात्म्य है कि उसके प्रगट होनेपर बुद्धिमें विपर्यय होता ही नहीं, सदा वह सत्य पदार्थकी ही ग्राहक होती हैं । इसप्रकारके विभाव एवं स्वभाव (आत्मीय परिणाम ) जीवोंके नानारूपसे उदित होते रहते हैं । विभावपरिणामोंके उदयमें आत्मा असत्प्रवृत्ति एवं असत्विचारोंमें प्रवृत्त हो जाता है, स्वभाव परिणामोंके प्रगट होनेपर वही आत्मा सत्प्रवृत्ति एवं सद्विचारोंमें बिना उपदेश एवं बिना शिक्षण आदिके स्वयं प्रवृत्त हो जाता है । उपर्युक्त कथन से सम्यग्ज्ञान को पहले और सम्यग्दर्शनको पीछे बतलानेवालोंकी शंकाका निरसन
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