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________________ ५० : प्रमाण-परीक्षा चौथा विकल्प भी सुसंगत नहीं है, क्योंकि अर्थक्रियाकी प्राप्तिमें निमित्त होनेसे ज्ञानको प्रमाण माननेपर प्रश्न होता है कि ज्ञान अर्थक्रियाकी प्राप्तिमें निमित्त है, इसका कैसे निश्चय होता है ? यदि कहा जाय कि प्रतिपत्ताके अर्थक्रियाज्ञानसे उसका निश्चय होता है, तो अर्थक्रियाज्ञान प्रमाण है, यह कैसे सिद्ध होता है। यदि कहें कि अन्य अर्थक्रियाकी प्राप्तिमें वह निमित्त हैं तो उसकी भी सिद्धि कैसे है ? यदि पूनः कहें कि दूसरे अर्थक्रियाज्ञानसे उसकी सिद्धि होती है तो अनवस्था क्यों नहीं होगी। अगर यह कहें कि प्रथम ज्ञानसे ही अर्थक्रियाज्ञानमें प्रमाणता आ जाती है तो परस्पराश्रय दोष होता है। अर्थक्रियाज्ञानकी प्रमाणताका निश्चय होनेपर उसके बलसे प्रथम ज्ञानके अर्थक्रियाकी प्राप्तिमें निमित्त होनेसे प्रमाणताका निश्चय हो और उसकी प्रमाणताके निश्चयसे अर्थक्रियाज्ञानको प्रमाणताको सिद्धि हो, अन्य कोई उपाय नहीं है। __ अतः प्रमाणतत्त्वपर जब विचार करते हैं तो वह सिद्ध नहीं होता और जब प्रमाणतत्त्व सिद्ध नहीं होगा तब प्रमेयतत्वकी भी सिद्धि नहीं हो सकती, इसलिए तत्त्वोपप्लव ही युक्त है ? समाधान-तत्त्वोपप्लववादियोंका उक्त समस्त कथन केवल प्रलाप (बकवास) है, क्योंकि प्रतिवादीके द्वारा स्वीकृत प्रमाणतत्त्वका निराकरण, जो उन्हें इष्ट है, विना प्रमाणके सिद्ध नहीं होता । उसे इष्ट न माननेपर साधन नहीं बनता। अर्थात् साध्य जब इष्ट होता है तभी उसे सिद्ध करने के लिए साधन माना जाता है। यदि कहा जाय कि दूसरेसे प्रश्न करना मात्र हमारा प्रयोजन है, क्योंकि 'आचार्य बृहस्पतिके जितने सूत्र हैं वे सब प्रश्नपरक ही हैं। ऐसा कहा गया है, किसी विषयमें स्वतंत्रता नहीं है, तो यह कथन भी निस्सार हो है, क्योंकि ऊपर कहे गये चारों पक्षोंका कहीं निर्णय न होने पर सन्देह सम्भव नहीं है और तब प्रश्न हो ही नहीं सकते । तात्पर्य यह कि प्रश्न तभी होता है जब सन्देह होता है और सन्देह वहाँ होता है जहाँ अनिश्चय होता है, किन्तु उक्त चारों पक्ष (निर्दोष कारणोंसे उत्पन्न होना आदि) कहीं निर्णीत नहीं हैं, तब अन्यत्र उनका अनिश्चय भी नहीं हो सकता। शंका-प्रतिवादी द्वारा स्वीकृत होनेसे प्रमाणतत्त्व तथा प्रमेयतत्त्वका निश्चय है और इसलिए संशय उत्पन्न होनेसे प्रश्न हो सकता है। वह इस प्रकार है-मीमांसकोंकी अपेक्षा निर्देषकारणोंसे उत्पन्न होना और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001102
Book TitlePramana Pariksha
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1977
Total Pages212
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, P000, & P035
File Size13 MB
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