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________________ धर्म और समाज अन्तर है। दूसरा वर्ग रूढ़ियों और भयके बन्धन छोड़े बिना ही उदारता दिखलाता है जिससे उसकी उदारता कामके अवसरपर केवल दिखावा सिद्ध होती है, जब कि तीसरे वर्गकी उदारता शुद्ध कर्त्तव्य और स्वच्छ दृष्टिमेंसे उत्पन्न होती है। इसलिए उसको सिर्फ जैन नामका मोह नहीं होता, साथ ही उसके प्रति घृणा भी नहीं होती। इसी प्रकार वह उदारता या सुधारके केवल शाब्दिक खिलवाड़में नहीं फँसता । वह पहले अपनी शक्तिका माप करता है और पीछे कुछ करनेकी सोचता है । उसको जब स्वच्छ दृष्टिसे कुछ कर्त्तव्य सूझता है तब वह बिना किसीकी खुशी या नाराजीका ख्याल किये उस कर्त्तव्यकी ओर दौड़ पड़ता है। वह केवल भूतकालसे प्रसन्न नहीं होता। दूसरे जो प्रयत्न करते हैं, सिर्फ उन्हींकी तरफ देखते हुए बैठे रहमा पसन्द नहीं करता। उसको जाति, संप्रदाय, या क्रियाकांडके प्रतिबन्ध पसन्द नहीं होते । वह इन प्रतिबन्धोंके भीतर भी रहता है और इनसे बाहर भी विचरता है। उसका सिद्धान्त यही रहता है कि धर्मका नाम मिले या न मिले, किसी किस्मका सर्वहितकारी कल्याण-कार्य करना चाहिए । यह जो तीसरा वर्ग है, वह छोटा है, लेकिन उसकी विचार-भूमिका और कार्य-क्षेत्र बहुत विशाल है। इसमें सिर्फ भविष्यकी आशाएँ ही नहीं होती पर अतीतकी शुभ विरासत और वर्तमान कालके कीमती और प्रेरणादायी बल तकका समावेश होता है। इसमें थोड़ी, आचरणमें आ सके उतनी, अहिंसाकी बात भी आती है। जीवनमें उतारा जा सके और जो उतारना चाहिए, उतना अनेकान्तका आग्रह भी रहता है। जिस प्रकार दूसरे देशोंके और भारतवर्षके अनेक संप्रदायोंने ऊपर बतलाये हुए एक तीसरे युवक वर्गको जन्म दिया है, उसी तरह जैन परम्पराने भी इस तीसरे वर्गको जन्म दिया है। समुद्रमेंसे बादल बनकर फिर नदी रूपमें होकर अनेक तरहकी लोक-सेवा करते हुए जिस प्रकार अंतमें वह समुद्र में ही लय हो जाता है, उसी प्रकार महासभाके आँगनमेंसे भावना प्राप्त कर तैयार हुआ और तैयार होता हुआ यह तीसरे प्रकारका जैन वर्ग लोक-सेवा द्वारा आखिरमें महासभामें ही विश्रान्ति लेगा। हमको समझ लेना चाहिए कि आखिरमें तो जल्दी या देरीसे सभी संप्रदायोंको अपने अपने चौकोंमें रहते हुए या चौकोंसे बाहर जाकर भी वास्तविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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