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________________ धर्म और समाज विशृङ्खलता दिखाई देती है । उसके स्थान में अधिकारस्वरूप आश्रमव्यवस्था उक्त ध्येयका स्वीकार करनेसे अपने आप सिद्ध हो जायगी । इस दृष्टि से विचार करते हुए मुझे स्पष्ट मालूम होता है कि यदि आजकी नव सन्तति दूसरे किसी भी वादविवाद में न पड़कर अपने समस्त कर्तव्यों और उनकी जवाबदारियों में रस लेने लग जाय, तो हम थोड़े ही समय में देख सकेंगे कि पश्चिमके या इस देश के जिन पुरुषों को हम समर्थ मान कर उनके 'प्रति आदरवृत्ति रखते हैं, उन्हीकी पंक्ति में हम भी खड़े हो गये हैं । ५० यहाँ एक प्रश्नका निराकरण करना ज़रूरी है । प्रश्न यह है कि चार्वाक दृष्टि सिर्फ प्रत्यक्ष-सुख - वादकी है और वह भी सिर्फ स्वसुखवादकी । इस लिए उसमें सिर्फ अपने ही सुखका ध्येय रखनेके कारण दूसरोंके प्रति भी - सामूहिक जिम्मेवारीको, चाहे वह कौटुम्बिक हो या सामाजिक, कहाँ स्थान है, 'जैसा कि परलोकवाद में होना संभव है । चार्वाक के लिए तो अपने संतोष पर - ही सबका संतोष और ' आप मुए डूब गई दुनिया ' वाला सिद्धान्त है । पर इसका खुलासा यह है कि केवल प्रत्यक्षवादमें भी जहाँ अपने स्थिर और पक्के - सुखका विचार आता है वहाँ कौटुम्बिक, सामाजिक आदि जवाबदारियाँ प्राप्त हो जाती हैं । जबतक दूसरेके प्रति जवाबदारी न समझी जाय और न पाली • जाय तबतक केवल अपना ऐहिक सुख भी नहीं साधा जा सकता | दुनियाका कोई भी सुख हो, वह पर सापेक्ष है । इस लिए दूसरों के प्रति व्यवहारका समुचित व्यवस्था किये विना केवल अपना ऐहिक सुख भी सिद्ध नहीं हो सकता । इस लिए जिस तरह परलोक- दृष्टिमें उसी तरह केवल प्रत्यक्ष- बाद में भी सभी जिम्मेदारियोंको पूरा स्थान है । [ पर्युषण व्याख्यानमाला, बम्बई, १९३६ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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