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धर्म और समाज
BLAMES TOUR -
हो जानेपर उन लोगों का जो कष्ट है वह दूर हो जायगा और उसके स्थान पर - सत्य दर्शनका आनन्द प्राप्त होगा ।
देव, गुरु,
धर्म तत्व
जैन परम्परा के अनुसार तात्त्विक धर्म तीन तत्त्वों में समाया हुआ है - देव, गुरु और धर्म | आत्माकी संपूर्ण निर्दोष अवस्थाका नाम देव तत्त्व, उस निर्दो'ताको प्राप्त करनेको सच्ची आध्यात्मिक साधना गुरु तत्त्व और सब तरह के विवेकपूर्ण यथार्थ संयमका नाम धर्म तव । इन तीन तत्त्वोंको जैनत्वकी आत्मा कहना चाहिए। इन तत्वोंकी रक्षा करनेवाली और पोषण करनेवाली भावनाको उसका शरीर कहना चाहिए। देवतत्त्वको स्थूल रूप प्रदान करनेवाले मन्दिर, उनके अन्दर की मूर्तियाँ, उनकी पूजा-आरती और उक्त संस्थाके निर्वाहके लिए आमदनी के साधन, उसकी व्यवस्थापक पेढ़ियाँ तीर्थस्थान, ये - सब देवतत्वको पोषक भावना-रूप शरीरके वस्त्र और अलंकार हैं । इसी प्रकार मकान, खान-पान रहन-सहन आदिके नियम तथा दूसरे प्रकार के विधि-विधान ये सब गुरुतत्त्वरूप शरीरके वस्त्र और अलंकार हैं । अमुक चीज़ न खानी, अमुक ही खानी, अमुक प्रमाणमें खाना, अमुक वक्त नहीं खाना, अमुक स्थान में रहना, अमुक के प्रति अमुक रीति से ही व्यवहार करना, इत्यादि विधिनिषेध के नियम संयम तत्त्वके शरीरके कपड़े और जेवर हैं ।
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आत्मा, शरीर और उसके अंग
आत्मा के बसने, काम करने और विकसित होनेके लिए शरीरकी सहायता 'अनिवार्य होती है | शरीरके विना वह कोई व्यवहार सिद्ध नहीं कर सकता । कपड़े शरीरकी रक्षा करते हैं और अलंकार उसकी शोभा बढ़ाते हैं, परन्तु ध्यान - रखना चाहिए कि एक ही आत्मा होते हुए भी उसके अनादि जीवनमें शरीर एक नहीं होता । वह प्रतिक्षण बदलता रहता है । अगर इस बातको छोड़ भी दिया जाय, तो भी पुराने शरीरका त्याग और नये शरीरकी स्वीकृति सांसारिक आत्म-जीवन में अनिवार्य है । कपड़े शरीरकी रक्षा करते हैं, परन्तु यह एकान्त सत्य नहीं है । बहुत बार कपड़े उलटे शरीरकी विकृतिका कारण होनेसे त्याज्य हो जाते हैं और जब रक्षा करते हैं तब भी शरीर के ऊपर वे एक जैसे -नहीं रहते | शरीर के प्रमाणसे छोटे बड़े करने और बदलने पड़ते हैं । अवसर
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