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धर्म और उसके व्येयकी परीक्षा
नहीं होते, उनको अधर्म कहना चाहिए | अपने अनुभव से अपनी आत्मायें और सच्चे अनुमानसे दूसरोंमें भी देखा जा सकता है कि अमुक एक ही आचार कभी तो शुद्ध निष्ठासे उत्पन्न होता है और कभी अशुद्ध निष्ठासे । एक व्यक्ति जो आचरण शुद्ध निष्ठासे करता है, उसीको दूसरा व्यक्ति अशुद्ध निष्ठा से करता है। यदि एक वर्ग शुद्ध या शुभ निष्ठासे मंदिर निर्माण के पीछे पड़कर लोगोंकी शक्ति समय और धन लगाने में धर्म मानता है, तो दूसरा वर्ग उतनी ही बल्कि कई बार उससे भी अधिक शुभ या शुद्ध निष्ठा से मंदिर निर्माणका विरोध करके उसके पीछे खर्च किये जानेवाले धन-जन बलको दूसरी ही दिशामें खर्च करने में धर्म समझता है और तदनुसार आचरण करता है। एक वर्ग कदाचित् विधवा बालाके हितार्थ ही उसके पुनर्विवाहका विरोध करता है, तो दूसरा वर्ग उस बालाका अधिकार समझकर उसके अधिकार धर्मको दृष्टिसे शुभ निष्ठापूर्वक उनके पुनर्विवाह की हिमायत में ही धर्म समझता है । एक वर्ग चूहों और दूसरे विषैले जन्तुओंकी, द्वेषभावसे नहीं, पर बहूजनहितकी दृष्टिसे शुभनिष्ठापूर्वक, हिंसाकी हिमायत करता है, तो दूसरा वर्ग बहुजनके जीवनाधिकारको दृष्टिसे शुभनिष्ठापूर्व ही उनकी हिंसा के विरोधमें धर्म समझता है। तात्पर्य यह कि बहुत से रीति'रिवाजों और प्रथाओंके समर्थन या विरोधके पीछे बहुधा दोनों पक्षवालोंकी शुभनिष्ठाका होना संभव है ।
यह तो जानी हुई बात है कि हजारों स्वार्थी जन सिर्फ अपनी अन्दरूनी - स्वार्थ- वृत्ति और लोलुप अशुभ निष्ठाको लेकर ही मन्दिर तथा वैसी दूसरी संस्थाओंका समर्थन करते हैं, और तीर्थोंका माहात्म्य गाकर सिर्फ आजीविका प्राप्त करते हैं। अपनी किसी स्वार्थवृत्तिसे या प्रतिष्ठा के भूत के भय से प्रेरित होकर विधवा भले बुरेका विषेक किये विना ही केवल अशुभ निष्ठासे उसके पुनविवाहका समर्थन करनेवाले भी होते आये हैं, और इतनी ही या इससे भी अधिक अशुभ वृत्तिसे पुनर्विवाहका विरोध करने वाले भी मिल जाते हैं । मद्यमांस जैसे हेय पदार्थों का भी शुभनिष्ठा से प्रसंग विशेष 'धर्म माना गया है, जब कि अशुभ निष्ठासे उनका त्याग धर्म सिद्ध नहीं होनेके उदाहरण भी मिल सकते हैं ।
पर उपयोग करनेमें करने या कराने का
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