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________________ सम्प्रदाय और सत्य करनेका ही बल रखते हैं । ऐसे व्यापक, निष्पक्ष और समन्वयगामी चिन्तनप्रवाहमेंसे उसे ऐसी चाबी प्राप्त हो जाती है कि अब वह संप्रदाय-संप्रदाय, पंथ-पंथ और फिरके फिरकेके बीचके छोटे बड़े सभी भेदोंके विरोधकी ग्रन्थिको एकदम सुलझा लेता है। बादमें तो वह उन स्वानुभूत सभी साम्प्रदायिक परिस्थितियोंमेंसे सिद्धान्तोंको खोज लेता है और उसे ऐसा अनुभव होता है कि संप्रदायोंम सत्य तो है किंतु वह मर्यादित ही है । अन्य सम्प्रदायके सत्यके साथ एक सम्प्रदायके सत्यका कोई विरोध नहीं तथा दोनों सम्प्रदायोंके आंशिक सत्यका इतर तमाम संम्प्रदायोंक आंशिक सत्यके साथ भी कोई विरोध नहीं । ये सभी खंड सत्य एक महासत्यके अभिव्यक्त रूप हैं। उसका मन यही कहता है कि किसी मातृभक्तको अपनी माताकी उत्कृष्ट उपासना के लिए दूसरोंकी माताकी लघुताका ढिंढोरा पीटना उचित नहीं है । स्वमाताकी पूज्यता दूसरों की माताको गाली दिए बिना भी सिद्ध हो सकती है। इसी प्रकार अन्य सम्प्रदायोंके विषयमें तिरस्कार, क्षुद्रता अथवा दोष दर्शन किये बिना ही स्वसंप्रदायके प्रति पूर्ण सम्मान बुद्धिपूर्वक प्रदर्शित किया जा सकता है। ऐसे विचार-प्रवाहोंके स्फुरित होते ही वह साम्प्रदायिक होनेपर भी असाम्प्रदायिक हो जाता है, पंथगामी होनेपर भी सत्यगामी बनता है, और मनुष्यत्वके आदर्शके साथ पूर्ण रूपसे सम्बन्ध रखनेवाले धर्मपंथके विषयमें विचार करता है। __ अब तो वह कुरान और पुराण दोनोंके साम्प्रदायिक अनुगामियों के झगड़ोंको बाल-चेष्टा गिनता है और वेद, आगम, पिटक, अवेस्ता, बाइबिल आदि सभी धर्मग्रन्थोंमें दिखाई देनेवाले विरोधोंका समाधान पा जाता है। उसके सामने विश्वको एकता, राष्ट्रीय एकता, सामाजिक और धार्मिक एकताका स्पष्ट आदश उपस्थित होता है और दूसरोंको परस्पर विरोधी दिखाई देनेवाले इन्हीं पंथों में से उसे अभी तक साम्प्रदायिक बुद्धिसे आच्छादित एकताके पोषक तत्वोंका ऐतिहासिक मर्म प्राप्त हो जाता है । यदि वह जैन हो तो गीतामेंसे भी सत्य पा सकता है। वैदिक हो तो उत्तराध्ययन और धम्मपदका धर्म पान करता है । मुसलमान हो तो अवेस्ता और आगम पिटकोंमेंसे भी सत्यकी प्रेरणा प्राप्त करता है। जो धर्मदृष्टि एक बार संकुचित मार्ग और उलझनोंकी संकीर्ण गलियोंमेंसे कठिनाईसे गिरती पड़ती चलती थी वही अब बन्धनमुक्त होकर मनुष्य मात्रको एकता सिद्ध करनेके पुण्यकार्य में उद्यत हो जाती है। [ मूल गुजराती। अनु०-६० महेन्द्रकुमार ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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