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________________ अभिनंदन 'घर्म, नीति, संस्कृति, समाज, जीवन, शास्त्र, सत्य, स्वतंत्रता आदि प्रौढ और गंभीर विषयोंपर मौलिक विचार प्रकट करने का जिन इने-गिने भारतवासियोंको अधिकार है, उनमें भी पंडित सुखलालजीका स्थान ऊँचा है । शास्त्र-ग्रंथोंका अध्ययन जिस गहराईसे पंडित सुखलालजीने किया है उतना बहुत कम पंडितोंने किया है । और खूबी यह है कि सतत अध्ययनसे इनको बुद्धि और शास्त्रदृष्टि श्रद्धाजड नहीं हुई हैबल्कि चेतनवती हुई है। __इस पुस्तकके चौबीस निबंध और भाषण अधिकांशमें जैन समाजको उद्देश कर लिखे गये हैं। तो भी इनमें सांप्रदायिक संकुचितताका लवलेश नहीं है । सारग्राही समन्वयवादी और कल्याणाकांक्षी वृत्तिसे लिखे हुए इन प्रबंधों में लोक-कल्याणकी तीव्र इच्छा और जीवन-शुद्धिकी तेजस्विता शरूसे आखिर तक झलकती है। इस ग्रंथका अध्ययन केवल जैनोंके लिये ही नहीं, समस्त भारतीय जनसमुदायके लिये पोषक और लाभदायी है। जैन समाजका मैं अभिनंदन करता हूँ कि उसे ऐसे शुद्ध विचारवाले, दीर्वदर्शी, निस्पृह नेता मिले हैं। पंडित सुखलालजीकी प्रेरणा बौद्धिक क्षेत्रमें काम करती है, इस लिये उसका कार्य तुरंत प्रत्यक्ष नहीं होता। किन्तु उनकी निस्पृह और तटस्थ भूमिकाके कारण ही उनकी वाणीसे जो जीवन-परिवर्तन होता है वह अपना कार्य धीमे धीमे किन्तु स्थायी रूपसे करता है। ऐसे व्याख्यान-संग्रह उच्च शिक्षाके पाठ्यक्रममें आवश्यक रूपसे रखने चाहिये, ताकि इन विचारोंका गहराईसे अध्ययन हो और : विद्यार्थियोंको शास्त्रोंके अध्ययन के लिये शुद्ध दृष्टिका लाभ हो ।.. इस छोटेसे ग्रंथको पढ़ते हुए पंडित सुखलालजीके बौद्धिक सहवासका जो सुख मिला वह सचमुच तीर्थस्नानके जैसा आह्लादक है। -काका कालेलकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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