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________________ १६ धर्म और समाज प्रकार होगा जिससे त्यागका पालन भी माना जाय और भोगोंका सेवन भी पुष्ट हो । ऐसी स्थिति में त्यागी वर्गमें गृहस्थोंकी तरह खुले तौरपर धन संग्रहकी स्पर्धा नहीं होनेपर भी दूसरेकी अपेक्षा अपने पास अधिक धनिक शिष्यों को फुसलाकर समझाकर फँसाकर अपना कर रखनेकी गूढ़ स्पर्धा तो अवश्य होगी । और ऐसी स्पर्धा में पड़कर वे जानमें या अनजानमै समाजकी सेवा करनेके बजाय कु-सेवा ही अधिक करेंगे । इसके विपरीत समाजमें यद धार्मिक दृष्टिसे त्यागीवर्ग होगा तो उसमें न होगी पैसे संग्रहकी स्पर्धा और न होगी धनिक शिष्योंको अपने ही बनाकर रखनेकी फिक्र । अर्थात् वह शिष्य-संग्रह या शिष्य परिवार के विषय में अत्यन्त निश्चिन्त होगा और इस प्रकार सिर्फ अपने सामाजिक कर्तव्योंमें ही प्रसन्नताका लाभ करेगा । ऐसे वर्ग के दो त्यागियों के बीच न होगी पर्धा और न होगा क्लेश । इसी प्रकार जिस समाज में वे रहते होंगे उसमें भी कोई क्लेशका प्रसंग उपस्थित न होगा । इस प्रकार हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि किसी समाज में नैतिक दृष्टिसे कितने ही त्यागी क्यों न हों फिर भी उनसे उस समाजका कल्याण न होकर अकल्याण ही अधिक होगा। इसके विपरीत किसी समाज में धार्मिक दृष्टिसे सिर्फ एक ही त्यागी क्यों न हो फिर भी वह अकेला ही समाजकी शुद्धि अत्यधिक मात्रा में करेगा । एक दूसरा दृष्टान्त लें । एक संन्यासी भोग-वासनाका अविर्भाव होने पर भी समाजमें अपयशके भयसे बाह्य रूपसे त्यागी रहकर भी अनाचारका सेवन करता रहता है । जब कि दूसरा त्यागी वैसी वासना के प्रकट होने पर यदि उसका दमन नहीं कर सकता तो चाहे कितना भी अपयश और तिरस्कार क्यों न हो फिर भी स्पष्ट रूप से गृहस्थ हो जाता है । विचार करनेसे उस नैतिक दृष्टिसे रहे हुए त्यागीकी अपेक्षा यह भोगी त्यागी ही समाजकी शुद्धिका अधिक रक्षक हैं । क्योंकि प्रथमने भयका पराजय नहीं किया जब कि दूसरेने भयको पराजित करके आन्तर और बाह्यका ऐक्य सिद्ध करके नीति और धर्म दोनोंका पालन किया है । इतनी लम्बी चर्चासे यह स्पष्ट हो गया है कि समाजकी सच्ची शुद्धि और सच्चे विकास के लिए धर्मको ही अर्थात् निर्भय निःस्वार्थ और ज्ञानपूर्ण कर्तव्य की ही आवश्यकता है । अब हमें देखना चाहिए कि विश्व में वर्तमान कौनसे पंथ, संप्रदाय या धर्म ऐसे हैं जो यह दावा कर सकते हों कि हमने ही मात्र धर्मका पालन करके समाजकी अधिक संशुद्धि की है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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