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नीति, धर्म और समाज
व्यक्ति असाधारण साहसी और बुद्धिमान् न हो तो वह इतना ही करेगा कि दूसरोंके रिश्वत लेने पर तटस्थ रह जायगा, विरोध नहीं करेगा। ऐसा होने पर ही उसकी गाड़ी उन सबके बीच चल सकेगी । इसी न्यायसे हमारे देशी आई० सी० एसोको परदेशियोंके बीच बहत बार बहत अनिष्ट सहना पड़ता है। तब ऐसे अनिष्टोंसे समाजको बचानेके लिए समाजके नायक या राजशासन करनेवाले कायदे कानून बनाते हैं या नीति-नियमोंका सृजन करते हैं । किसी समय बड़ी उम्र तक कन्याओंको अविवाहित रखनेमें अमुकः अनिष्ट समाजको प्रतीत हुआ, तो स्मृतिशास्त्रमें नियम बनाया गया कि आठ या नव वर्ष की कन्या जब तक गौरी हो, शादी कर देना धर्म है। इस नियमका उलंघन करनेवाला कन्याका पिता और कन्या दोनों समाजमें निन्दित होते थे। उस भयसे समाजमें बाल-विवाहकी प्रथा चल पड़ी । और जब इस नातिके अनुसरणमें अधिक अनिष्ट होने लगा तब समाजके नायकों और राजकर्ताओंके लिए दूसरा नियम बनाना आवश्यक हो गया । अब चौदह या सोलह वर्षसे कम उम्रमें कन्याका ब्याह करते हुए लोग शिक्षितोंद्वारा की जानेवाली निन्दासे डरते हैं या राज्यके दण्ड भयसे नियमका पालन करते हैं। एक कर्जदार व्यक्ति अपना कर्ज चुकाने के लिए तत्पर रहता है, यह इस लिए कि यदि वह कर्ज नहीं चुका देगा तो उसकी शाख-प्रतिष्ठा चली जायगी, और यदि शाख चली गई तो कोई उसे कर्ज नहीं देगा और ऐसा होनेसे उसके व्यापारमें हानि होगी। इस तरह यदि देखा जाय तो प्रतीत होगा कि समाजके प्रचलित सभी नियमोंका पालन लोग भय या स्वार्थवश करते हैं । यदि किसी कार्यके करने या न करनेमें भय या लालच न हो तो उस कार्य को करने या न करनेवाले कितने होंगे, यह एक बड़ा प्रश्न है। कन्या भी पुत्रके ही समान संतति है, इसलिए उसका पुत्रके समान हक होना चाहिए, ऐसा समझ कर उसे दहेज देनेवाले माता-पिताओंकी अपेक्षा ऐसे मातापिताओंकी संख्या अधिक मिलेगी जो यही समझ कर दहेज देते हैं कि यदि उचित दहेज नहीं दिया जायगा तो कन्याके लिए अच्छा घर मिलना मुश्किल हो जायगा या प्रतिष्ठाकी हानि होनेसे अपने पुत्रोंको अच्छे घरकी कन्या नहीं मिलेगी। यही भय या स्वार्थ प्रायः संतानकी शिक्षाके विषय में भी कार्य करता है। यही कारण है कि उक्त उद्देश्य की सिद्धि होने पर लड़का या लड़की योग्य होने पर
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