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धार्मिक शिक्षाका प्रश्न
और बालकों का जीवन घर और पाठशाला के संस्कारोंके संघर्षके बीच स्थिर रह सकता है । यही बात बड़ी उम्र के विद्यार्थियों के विषयमें भी है । प्रत्येक व्यवसायी अथवा गृहस्थ, अपने बचे हुए समय और शक्तिका उपयोग सुसंकार ग्रहण करने में कर सकता है। इतना ही नहीं उसे वैसा करना भी चाहिए, अन्यथा उसके और उसकी संतति के बीच ऐसी दीवाल खड़ी हो जानेवाली है कि संतति उसे दोष देगी और वह संततिपर दोष मढ़ेगा । ऐसी स्थिति कदापि ठीक नहीं कि संतति कहे कि माता पिता बहमी, जड़, और रूढ़िगामी हैं और माता-पिता कहें कि पढ़े लिखे विद्यार्थी केवल हवामें उड़ते हैं । माता-पिताओं और विद्यार्थियों के बीच की खाई अधिक गहरी न हो, इसका रामबाण इलाज माता-पिताओंके ही हाथमें है, और वह इलाज है अपनी समझको शुद्ध करनेका प्रयत्न |
अनु० - मोहनलाल मेहता
प्रबुद्ध जैन /
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धार्मिक शिक्षाका प्रश्न
धार्मिक शिक्षा देना चाहिए या नहीं, इस प्रश्नको लेकर मुख्य रूपसे आमने सामनेके छोरोंपर खड़े हुए दो वर्ग नजर आते हैं । एक वर्ग वह है जो धार्मिक शिक्षा देने दिलानेके लिए बहुत आग्रह करता है जब कि दूसरा वर्ग इस विषय में उदासीन ही नहीं है अपितु अक्सर विरोध भी करता है । यह स्थिति केवल जैन समाजकी ही नहीं प्रायः सभी समाजोंकी है । हमें देखना चाहिए कि विरोध करनेवाला विरोध क्यों करता है ? क्या उसे शिक्षा के प्रति अरुचि है या धर्मके नामसे सिखाई जानेवाली बातोंके प्रति द्वेष है ? और इस अरुचि या द्वेषका कारण क्या है ? इसी प्रकार धार्मिक शिक्षाके प्रति आग्रह रखनेवाला किस धर्मकी शिक्षाके विषयमें आग्रह रखता है और उस आग्रहके मूलमें क्या है ?
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विरोध करनेवालेकी शिक्षाके प्रति उतनी ही ममता है जितनी धर्म - शिक्षाके आग्रहीकी । धर्मके प्रति भी उसकी अरुचि नहीं हो सकती, यदि वह
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