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________________ धर्म और समाज दूसरे अर्थ में भले ही १९ वीं या १४ वीं शताब्दीका गिना जाऊँ । मेरा विश्वास है कि सत्य की जिज्ञासा और शोध किसी एक शताब्दीकी चीज नहीं । प्रत्येक शताब्दी और युगमें चाहनेवालोंके लिए हमेशा उनके द्वार खुले रहते हैं और दूसरोंके लिए किसी भी शताब्दी और युगमें बन्द रहते हैं । इस व्यक्तिगत चर्चाद्वारा मैं आप लोगों का ध्यान दो बातोंकी ओर खींचना चाहता हूँ । एक तो जीवनमें हमेशा विद्यार्थी अवस्था बनाए रखना और दूसरे विद्यार्थीपनको मुक्त मनसे अर्थात् निर्बन्धन और निर्भय होकर विकसित करते रहना ! मनोविज्ञान की दृष्टिसे विचार किया जाय तो विद्यार्थी अवस्थाके अर्थात् संस्कार ग्रहण करनेकी योग्यताके बीज जिस समय बालकके माता पिता दाम्पत्यजीवन में प्रवेश करते हैं उसी समय से मनोभूमिका रूपसे संचित होने लगते हैं और गर्भाधान के समयसे व्यक्त रूप धारण करने लगते हैं । किन्तु हमारा गुलाम मानस इस सत्यको नहीं समझ पाता । जिनको शिशु, किशोर और कुमारावस्थाके विद्यार्थी जीवन में सावधानीसे सुविचारित मार्गदर्शन मिला हो, ऐसे विद्यार्थी हमारे यहाँ बहुत कम हैं । हमारे यहाँके सामान्य विद्यार्थीका जीवन I नदीके पत्थरोंकी भाँति आकस्मिक रीतिसे ही गढ़ा जाता और आगे बढ़ता है । नदी के पत्थर जैसे बारबार पानीके प्रवाहके बल से घिसते घिसते किसी समय खुद ही गोल गोल सुन्दर आकार धारण करते हैं उसी प्रकार हमारा सामान्य विद्यार्थी वर्ग पाठशाला, स्कूल, समाज, राज्य और धर्मद्वारा नियंत्रित शिक्षणप्रणालीकी चक्की के बीचसे गुजरता हुआ किसी न किसी रूप में गढ़ा जाता है । १६ वर्ष तकका विद्यार्थी जीवन दूसरोंके छननेसे विद्या-पान करनेमें बीतता है । अर्थात् हमारे यहाँ वास्तविक विद्यार्थी जीवनका प्रारंभ स्कूल छोड़कर कालेजमें प्रवेश करते समय ही होता है । इस समय विद्यार्थीका मानस इतना पक जाता है कि अब वह अपने आप क्या पढ़ना, क्या न पढ़ना, क्या सत्य और क्या असत्य, क्या उपयोगी क्या अनुपयोगी, यह सब सोच सकता है । इसलिए विद्यार्थीजीवनमें कालेज-काल बहुत महत्त्वका है। पहले की अपक्वावस्था में रही हुई त्रुटियों और भूलोंको सुधारनेके उपरान्त जो सारे जीवनको स्पर्श करे और उपयोगी हो, ऐसी पूरी तैयारी इसी जीवन में करनी होती है । उस समय इतना उत्तरदायित्व समझने और निभाने जितनी बुद्धि और शारीरिक तैयारी भी होती है । १९४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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