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धर्म और समाज
पिछले एक वर्षसे तो हम अपनी संस्कृति और धर्मका और भी सच्चा रूप देख रहे हैं । लाखों शरणार्थियोंको निःस्सीम कष्ट होते हुए भी हमारी संग्रह तथा परिग्रह-वृत्ति तनिक भी कम नहीं हुई हैं । ऐसा कोई विरला ही व्यापारी मिलेगा, जो धर्मका ढोंग किये बिना चोर-बाज़ार न करता हो और जो घूसको एकमात्र संस्कृति एवं धर्मके रूपमें अपनाए हुए न हो । जहाँ लगभग समूची जनता दिलसे सामाजिक नियमों और सरकारी कानूनका पालन न करती हो, वहाँ अगर संस्कृति एवं धर्म माना जाय, तो फिर कहना होगा कि ऐसी संस्कृति
और ऐसा धर्म तो चोर-डाकुओंमें भी संभव है । __ हम हजारों वर्षों से देखते आ रहे हैं और इस समय तो हमने बहुत बड़े पैमानेपर देखा है कि हमारे जानते हुए ही हमारी माताएँ, बहनें और पुत्रियाँ अपहृत हुई । यह भी हम जानते हैं कि हम पुरुषों के अबलत्व के कारण ही हमारी स्त्रियाँ विशेष अबला एवं अनाथ बनकर अपहृत हुई, जिनका रक्षण एवं स्वामित्व करनेका हमारा स्मृतिसिद्ध कत्तव्य माना जाना जाता है। फिर भी हम इतने अधिक संस्कृत, इतने अधिक धार्मिक और इतने अधिक उन्नत हैं कि हमारी अपनी निर्बलताके कारण अपहृत हुई स्त्रियाँ यदि फिर हमारे समाजमें आना चाहें, तो हममेंसे बहुतसे उच्चताभिमानी पंडित, ब्राह्मण और उन्हींकी-सी मनोवृत्तिवाले कह देते हैं कि अब उनका स्थान हमारे यहाँ कैसे ? अगर कोई साहसिक व्यक्ति अपहृत स्त्रीको अपना लेता है, तो उस स्त्रीकी दुर्दशा या अवगणना करने में हमारी बहनें ही अधिक रस लेती हैं ।
इस प्रकार हम जिस किसी जीवन-क्षेत्र को लेकर विचार करते हैं, तो यही मालूम होता है कि हम भारतीय जितने प्रमाणमें संस्कृति तथा धर्मकी बातें करते हैं, हमारा समूचा जीवन उतने ही प्रमाणमें संस्कृति एवंः धर्मसे दूर है। हाँ, इतना अवश्य है कि संस्कृतिके बाह्य रूप और धर्मकी बाहरी स्थल लीके हममें इतनी अधिक हैं कि शायद ही कोई दूसरा देश हमारे मुकाबले में खड़ा रह सके। केवल अपने विरल पुरुषों के नामपर जीनाः और बड़ाईकी डींगें हाँकना तो असंस्कृति और धर्म-पराङ्मुखताका ही लक्षण है।
[ नया समाज, जुलाई १९४८ ।
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