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________________ धर्म कहाँ है? धर्मके दो रूप हैं। एक दृष्टिमें आने योग्य प्रत्यक्ष और दूसरा दृष्टि से ओझल, केवल मनसे समझा जानेवाला परोक्ष। पहले रूपको धर्मका शरीर और दूसरेको आत्मा कहा जा सकता है। दुनियाके सब धर्मो का इतिहास कहता है कि प्रत्येक धर्मका शरीर अवश्य होता है। प्रत्येक छोटे बड़े धर्म-पंथमें इतनी बातें साधारण हैं-शास्त्र, उनके रचयिता और ज्ञाता पंडित या गुरु; तीर्थ मंदिरादि पवित्र स्थल; विशेष प्रकारकी उपासना या क्रियाकाण्ड, और उन क्रियाकाण्डों और उपासनाओंका पोषण करनेवाला और उन्हींपर निर्वाह करनेवाला एक वर्ग । सारे धर्मपथोंमें किसी न किसी रूपमें उक्त बातें मिलती हैं और ये ही उस धर्मके शरीर हैं। अब यह देखना है कि धर्मका आत्मा क्या है ? आत्मा अर्थात् चेतना या जीवन । सत्य, प्रेम, निःस्वार्थता, उदारता, विवेक, विनय आदि सद्गुण आत्मा हैं | शरीर भले ही अनेक और भिन्न भिन्न हों परंतु आत्मा सर्वत्र एक होता है । एक ही आत्मा अनेक देहोंमें जीवनको पोसता है, जीवनको बहाता है। __ यदि अनेक देहोंमें जीवन एक हो और अनेक देह केवल जीवनके प्रकट होनेके वाहन हों, तो फिर भिन्न भिन्न देहोंमें विरोध, झगड़ा, क्लेश और प्रतिद्वंद्विता कैसे संभव हो सकती है ? जब एक ही शरीरके अंग बनकर भिन्न भिन्न स्थानोंपर व्यवस्थित और विभिन्न कामों के लिए नियुक्त हाथ-पाँव, पेट, आँखकान वगैरह अवयव परस्पर लड़ते या झगड़ते नहीं हैं, तो फिर एक ही धर्मके आत्माको धारण करनेका गर्व करनेवाले भिन्न मिन्न धर्मपंथोंके देह परस्पर क्यों लड़ते हैं ? उनका सारा इतिहास पारस्परिक झगड़ोंसे क्यों रँगा हुआ है ? इस प्रश्नकी ओर प्रत्येक विचारकका ध्यान जाना आवश्यक है। निरीक्षक और विचारकको स्पष्ट दिखाई देगा कि प्रत्येक पंथ जब आत्माविहीन मृतक जैसा होकर गंधाने लगता है और उसमेंसे धर्मके आत्माकी ज्योति लोप हो जाती है, तभी वे संकुचितदृष्टि होकर दूसरेको विरोधी और शत्रु मानने मनानेको तैयार होते हैं। यह सड़न किस प्रकार शुरू होती है और कैसे बढ़ती जाती है, यह जाननेके लिए बहुत गहराईमें जानेकी जरूरत नहीं है। शास्त्र, तीर्थ और मंदिर वगैरह स्वयं जड़ हैं, इस कारण न तो वे किसीको पकड़ रखते हैं और न किसी व्यक्तिसे भिड़नेके लिए धक्का मारते हैं । वे यह करने और वह नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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