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धर्मोका मिलन
लिए लड़ते हैं लेकिन धर्मको निर्जीव या गौण करके नहीं । राष्ट्रके विपरीत मार्गपर जानेपर उसे धर्म दृष्टिसे ही सुमार्ग बताते हैं । जिस प्रकार पराधीनतासे मुक्त होनेके लिए वे धर्मका आश्रय लेकर कार्यकी योजना बनाते हैं उसी प्रकार स्वराष्ट्र शुद्ध धर्मसे रहित न हो जाय, इसकी भी सावधानी रखते हैं । जब लोग कहते हैं कि गांधीजी राष्ट्रीय नहीं, धार्मिक हैं; तब इसका अर्थ यही समझना चाहिए कि वे हैं तो राष्ट्रीय ही लेकिन राष्ट्रको विपरीत मार्गपर न जाने देनेके लिए: सावधान हैं, और इसीलिए वे धार्मिक हैं। अगर वे सिर्फ धार्मिक ही होते, तो दूसरे निष्क्रिय साधुओंकी तरह एकांतमें चले जाते । लेकिन वे तो धर्मसे ही राष्ट्रोद्धार करना ठीक मानते हैं और उसीसे धर्म और अधर्मकी परीक्षा करते हैं । गाँधीजी अगर सिर्फ धार्मिक ही होते तो वे धर्मके नामपर समस्त देशको उत्तेजित करते और दूसरे धर्मोका सामना करनेके लिए कहते । लेकिन वे तो दूसरोंकी लुटारूवृत्तिका विरोध करते हैं, उनके अस्तित्वका नहीं। इसी भाँति वे स्वदेशकी निर्बलताका विरोध करते हैं और साथ ही राष्ट्रके उद्धारमें जरा भी उदासीनता नहीं आने देते । जिस समय धर्म राष्ट्रके क्शमें हो जाता है उस समय वह राष्ट्रके आक्रमण-कार्यमें सहायक होता है और दूसरोंकी गुलामीका पोषण करता है, साथ ही साथ स्वराज्यमें गुलामीका बीज वपन करता है । ग्रीस, रोम, अरब आदि देशोंमें जो हुआ है वही जापानमें बौद्ध धर्मके द्वारा हो रहा है। जब धर्म राष्ट्रके अधीन हो जाता है तब राष्ट्र अपने बचावके लिए अगर अधर्मका आचरण करता है, तो उसमें भी धर्म सहायक होता है। उदाहरणके तौरपर चीनका बौद्ध धर्म लिया. जा सकता है । जब चीन अपने दुश्मनोंसे हिंसक युद्ध लड़ता है, तब वहाँका बौद्ध धर्म उसमें सहायक बनता है । यही है धर्मकी राष्ट्राधीनता । अगर धर्म प्रधान रहता है तो वह राष्ट्रको आक्रमण नहीं करने देता, उसमें सहायक भी नहीं बनता, स्वराष्ट्रको गुलामीसे मुक्त करनेके लिए भी अधर्म्य साधनोंका उपयोग नहीं होने देता । इसके विपरीत वह धर्म्य साधनोंकी नई योजना बनाकर देशको पराधीनतासे मुक्त करता है। इस दृष्टिसे अगर कोई देश धर्मकी स्वतंत्रताका दावा कर सकता है तो वह भारत ही है और वह भी गाँधीजीके हाथों। गाँधीजीका धर्म सक्रिय और निष्क्रिय दोनों है। पर-सत्त्वको छीननेमें तो वह निष्क्रिय है लेकिन स्व-सत्व सिद्ध करनेमें सक्रिय।
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