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विचार - कणिका
[ ' संसार और धर्म ' की प्रस्तावना* ]
यों तो इस संग्रहका प्रत्येक लेख गहन है किन्तु कुछ तो ऐसे हैं कि जो बड़े से बड़े विद्वान् या विचारककी भी बुद्धि और समझकी कसौटी करते हैं । विषय विविध हैं । दृष्टिबिन्दु अनेक विध हैं । समालोचना मूलगामी है । अतएव समस्त पुस्तकका रहस्य तो समस्त लेखों को पढ़कर विचार कर ही प्राप्त किया जा सकता है फिर भी दोनों लेखकोंके प्रत्यक्ष परिचय और इस पुस्तकके वाचनसे मैं जो कुछ समझ पाया हूँ और जिसने मेरे मनपर गहरी छाप जमाई है उससे सम्बद्ध कुछ बातोंकी ही यहाँ चर्चा करता हूँ ।
( १ ) धर्म और तत्त्व - चिन्तनकी दिशा एक हो तभी दोनों सार्थक बन सकते हैं ।
( २ ) कर्म और उसके फलका नियम सिर्फ वैयक्तिक न होकर सामूहिक भी है ।
(३) मुक्ति कर्मके विच्छेद या चित्तके विलय में नहीं है किन्तु दोनों की उत्तरोत्तर शुद्धिमें है ।
( ४ ) मानवताके सद्गुणों का रक्षा, पुष्टि और वृद्धि यही परम ध्येय है ।
- तत्त्वज्ञान अर्थात् सत्यशोधनके प्रयत्नोंमेंसे फलित हुए और होनेवाले सिद्धान्त । धर्म अर्थात् उन सिद्धान्तोंके अनुसरणद्वारा निर्मित वैयक्तिक और सामूहिक जीवन व्यवहार । यह सच है कि एक ही व्यक्ति या समूहकी योग्यता और शक्ति सदैव एक सी नही होती । अतएव भूमिका और अधिकार-भेदके
* नवजीवन संघद्वारा प्रकाशित गुजराती पुस्तक । लेखक - श्री किशोरलाल मशरूवाला और केदारनाथजी ।
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