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________________ १६० धर्म और समाज - - विजय तो जैनधर्मकी असली आत्माकी ही है। इस विजयसे प्रसन्न होनेके बदले अपनी धर्मच्युति और प्रमादपरिणतिको ही धर्म मानकर एक सत्कार्यका कल्पित दलीलोंसे विरोध करना और चाहे जो हो, जैनत्व तो नहीं है। जैनी सुदूर प्राचीनकालसे जिस तरह अपने त्यागी-संघमें जाति और लिंगके भेदकी अपेक्षा न करके सबको स्थान देते आये हैं, उसी तरह वे सदासे अपने धर्मस्थानोंमें जन्मसे अजैन व्यक्तियोंको समझाकर, लालच देकर, परिचय बढ़ाकर तथा अन्य रीतियोंसे ले जानेमें गौरव भी मानते आये हैं । कोई भी विदेशी, चाहे पुरुष हो या स्त्री, कोई भी सत्ताधारी या वैभवशाली चाहे पारसी हो या मुसल, मान, कोई भी शासक चाहे ठाकुर हो या भील, जो भी सत्ता सम्पत्ति और विद्यामें उच्च समझा जाता है उसे अपने धर्मस्थानोंमें किसी न किसी प्रकारसे ले जानेमें जैन धर्मकी प्रभावना समझते आये हैं । जब ऐसा व्यक्ति स्वयं ही जैनधर्मस्थानोंमें जानेकी इच्छा प्रदर्शित करता है, तब तो जैन गृहस्थों और त्यागियोंकी खुशीका कोई ठिकाना ही नहीं रहता। यह स्थिति अबतक सामान्यरूपसे चली आई है। कोई त्यागी या गृहस्थ यह नहीं सोचता कि मन्दिर और उपाश्रयमें आनेवाला व्यक्ति रामका नाम लेता है या कृष्णका, अहुरमज्द, खुदा या ईसाका? उसके मन में तो केवल यही होता है कि भले ही वह किसी पन्थका माननेवाला हो, किसीका नाम लेता हो, किसीकी उपासना करता हो, चाहे मांसभक्षी हो या मद्यपायी, यदि वह स्वयं या अन्यकी प्रेरणासे जैनधर्मस्थानोंमें एकाध बार भी आयेगा, तो कुछ न कुछ प्रेरणा और बोध ग्रहण करेगा, कुछ न कुछ सीखेगा । यह उदारता चाहे ज्ञानमूलक हो चाहे निबलतामूलक, पर इसका पोषण और उत्तेजन करना हर तरहसे उचित है । हेमचन्द्र जब सिद्धराजके पास गये थे तो क्या वे नहीं जानते थे कि सिद्धराज शैव है ? जब हेमचन्द्र सोमनाथ पाटनके शैव मन्दिरमें गये तब क्या वे नहीं जानते थे कि यह शिवमन्दिर हैं ? जब सिद्धराज और कुमारपाल उनके उपाश्रयमें पहले पहल आये तब क्या उन्होंने राम-कृष्णका नामका लेना छोड़ दिया था, केवल अरहंतका नाम रटते थे ? जब हीरविजयजी अकबरके दरबारमें गये तब क्या अकबरने या उसके दरबारियोंने खुदा या मुहम्मद पैगम्बरका नाम लेना छोड़ दिया था ? अथवा जब अकबर हीरविजयजीके उपाश्रयमें आये तब क्या उन्होंने खुदाका नाम ताकमें रखकर अरहंतके नामका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001072
Book TitleDharma aur Samaj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Dalsukh Malvania
PublisherHemchandra Modi Pustakmala Mumbai
Publication Year1951
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Articles
File Size13 MB
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