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धर्म और समाज
'पहाड़ियोंमें रहनेके लिए ललचा उठता है और आबहवाके लिए आनेवाले भी इन मंदिरोंको देखे बिना नहीं रह सकते। जैसे सुन्दर ये मन्दिर हैं वैसा ही सुन्दर पर्वत है । तो भी उनके पास न तो स्वच्छता है, न उपवन है और न जलाशय । स्वभावसे उदासीन जैन जनताको यह कमी भले ही न खटकती हो, तो भी जब वे दूसरे केम्पों और जलाशयोंकी ओर जाते हैं तो तुलनामें उन्हें भी अपने मंदिरोंके आसपास यह कमी खटकती है। सिरोही, पालनपुर या अहमदाबादके युवक-संघ इस विषयमें बहुत कुछ कर सकते हैं। उत्तम वाचनालय और पुस्तकालयकी सुविधा तो प्रत्येक तीर्थमें होनी चाहिए | आबू
आदि स्थानोंमें यह सुविधा बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकती है। पालीताणामें कई 'शिक्षणसंस्थाएँ हैं। उनके पीछे खर्च भी कम नहीं होता। उनमें काम तो होता है लेकिन दूसरी प्रसिद्ध संस्थाओंकी भाँति वे विद्वानोंको आकर्षित नहीं कर सकतीं । इसके लिए भावनगर जैसे नजदीकके शहरके विशिष्ट शिक्षित युवकोंको सहयोग देना चाहिए।
जो ऊँच-नीचके भेद न मानता हो, कथित अस्पृश्यों और दलितोंके साथ मनुष्यताका व्यवहार करता हो, जो अनिवार्य वैधव्यके बदले ऐच्छिक वैधव्य का सक्रिय समर्थक हो और जो धार्मिक संस्थाओंमें समयोचित सुधारका हिमायती हो, उसके द्वारा यदि ऐसी अल्प और हलकी कार्य-सूचना दी जाय, तो जड़ रूढिकी भूमिमें लम्बे समयसे खड़े खड़े उकताये हुए और विचार-क्रान्तिके आकाशमें उड़नेवाले युवकोंको नवीनता मालूम होगी, यह स्वाभाविक है। परन्तु मैंने यह मार्ग जान-बूझकर अपनाया है। मैंने सोचा कि एक हलकीसे हलकी कसौटी युवकों के सामने रखू और परीक्षा करके देखू कि वे उसमें कितने अंशमें सफल हो सकते हैं। हमें उत्तराधिकारमें एकांगी दृष्टि प्राप्त होती है जो समुचित विचार और आवश्यक प्रवृत्तिके बीच मेल करनेमें विघ्नरूप सिद्ध होती है। इसलिए उसकी जगह किस दृष्टिका हमें उपयोग करना चाहिए, इसीकी मैंने मुख्य रूपसे चर्चा की है। युककपरिषत्, अहमदाबाद, ।
अनुवादकस्वागताध्यक्षके पदसे ।
मोहनलाल खारीवाल
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