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युवकोंसे
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कौटुम्बिक या सामाजिक कार्य निरुत्साह और नीरसतासे करते जाते हैं, जिससे बल प्राप्त करनेकी इच्छा रखते हुए भी उसे प्राप्त नहीं कर पाते । संपत्ति, वैभव, विद्या या कीर्तिको बिना प्रयत्न पानेकी इच्छा रखते हैं और उसके लिए प्रयत्न करनेका कार्य दूसरोंके ऊपर छोड़ देते हैं । ऐसी स्थितिमें भगवानके वास्तविक निवृत्तिरूप जीवनप्रद जलके स्थानमें हमारे हिस्सेमें केवल उसका फेन और सील ही रहती है।
धर्म अधिकारसे ही शोभित होता है। जो अधिकाररहित धर्म साधु-. वर्गको सुशोभित नहीं कर सकता वह श्रावक-वर्गको कैसे सुशोभित करेगा ? निवृत्तिकी दृष्टिसे दाँत और शरीरकी उपेक्षा करनेमें ही हम धर्म मानते हैं लेकिन दाँतोंके सड़ने और शरीरके अस्वस्थ होनेपर इतने घबड़ा जाते हैं कि चाहे हम साधु हो चाहे गृहस्थ उसी समय डाक्टर और दवा ही हमारे मोहके विषय बन जाते हैं। व्यापार और कौटुम्बिक जिम्मेदारी निभानेमें भी बहुत बार हमारी मानी हुई निवृत्ति सामने आ जाती है लेकिन जिस समय इसके अनिष्ट परिणाम कुटुम्ब-कलह पैदा करते हैं उस समय हम उसे समभावसे सहनेमें असमर्थ होते हैं। सामाजिक सुव्यवस्था और राष्ट्रीय अभ्युदय अगर बिना प्रयत्नके मिल जाय, तो हमें अच्छे लगते हैं । सिर्फ हमें अच्छा नहीं लगता है उसके लिए पुरुषार्थ करना। साधुवर्गकी निवृत्ति और गृहस्थवर्गकी प्रवृत्ति ये दोनों जब अनुचित ढंगसे एक दूसरेके साथ मिल जाती हैं, तब निवृत्ति सच्ची निवृत्ति नहीं रहती और प्रवृत्तिकी भी आत्मा विलुप्त हो जाती है । एक प्रसिद्ध आचार्य ने एक अग्रगण्य और शिक्षित माने जानेवाले गृहस्थको पत्र लिखा। उसमें उन्होंने सूचित किया कि तुम्हारी परिषद् अगर पुनर्विवाहके चक्कर में पड़ेगी, तो धर्मको लांछन लगेगा। इन त्यागी कहे जानेवाले आचार्यकी सूचना ऊपरसे तो त्याग-गर्भित-सी प्रतीत होती है, लेकिन अगर विश्लेषण किया जाय तो इस अनधिकार संयमके उपदेशका मर्म प्रकाशित हो जाता है । पुनर्विवाह या उसके प्रचारसे जैनसमाज गर्तमें गिर जायगा, ऐसी दृढ मान्यता रखनेवाले और पुनर्विवाहके पात्रोंको नीची नजरसे देखनेवाले इन त्यागी जनोंके पास जब कोई वृद्ध-विवाह करनेवाला, या एक सीके रहते हुए भी दूसरी शादी करनेवाला, या अपने जीवनमें चौथी पाँचवीं शादी करनेवाला धनी गृहस्थ आ पहुँचता है, तब वह संपत्तिके कारण आगे
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