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धर्म और समाज
किसीको कभी कुछ कहनेका प्रसंग ही न आया हो । तब प्रश्न होता है कि ऊपरकी व्याख्यानुसार जिसे शास्त्र कह सकें, ऐसा कोई शास्त्र है भी या नहीं ? उत्तर सरल भी है और कठिन भी। यदि उत्तरके पीछे रहे हए विचारमें बंधन, भय या लालच न हो, तो सरल है, और यदि वे हों तो कठिन है। मनुष्यका स्वभाव जिज्ञासु भी है और श्रद्धालु भी । जिज्ञासा मनुष्यको विशालतामें ले जाती है और श्रद्धा दृढता प्रदान करती है । जिज्ञासा और श्रद्धाके साथ यदि दूसरी कोई आसुरी वृत्ति मिल जाय, तो वह मनुष्यको मर्यादित क्षेत्रमें बाँध रखकर उसीमें सत्य, नहीं-नहीं, पूर्ण सत्य, देखनेको बाधित करती है। इसका परिणाम यह होता है कि मनुष्य किसी एक ही वाक्यको, या किसी एक ही ग्रंथको अथवा किसी एक ही परम्पराके ग्रन्थसमूहको अंतिम शास्त्र मान बैठता है और उसीमें पूर्ण सत्य मान लेता है । ऐसा होनेसे मनुष्य मनुष्यमें, समूह समूहमें और सम्प्रदाय सम्प्रदायमें शास्त्रकी सत्यता-असत्यताके विषयमें अथवा शास्त्रकी श्रेष्ठताके तरतम भावके विषयमें झगड़ा शुरू हो जाता है । प्रत्येक मनुष्य स्वयं माने हुए शास्त्रके अतिरिक्त दूसरे शास्त्रोंको मिथ्या या अपूर्ण सत्य प्रकट करनेवाले कहने लग जाता है और ऐसा करके वह अपने प्रतिस्पर्धीको अपने शास्त्रके विषयमें वैसा ही कहनेके लिए जाने अनजाने निमन्त्रण देता है। इस तूफानी वातावरणमें और संकीर्ण मनोवृत्तिमें यह विचारना बाकी रह जाता है कि तब क्या सभी शास्त्र मिथ्या या सभी शास्त्र सत्य या सभी कुछ नहीं हैं ?
यह तो हुई उत्तर देनेकी कठिनाईकी बात । परंतु जब हम भय, लालच और संकुचितताके बन्धनकारक वातावरणमेंसे छूटकर विचारते हैं, तब उक्त प्रश्नका निटबारा सुगम हो जाता है और वह इस तरह कि सत्य एक और अखंड होते हुए भी उसका आविर्भाव ( उसका भान) कालक्रमसे और प्रकारभेदसे होता है। सत्यका भान यदि कालक्रम विना और प्रकारभेद विना हो सकता, तो आजसे बहुत पहले कभीका यह सत्यशोधका काम पूर्ण हो जाता और इस दिशामें किसीको कुछ कहना या करना शायद ही रहा होता । सत्यका आविर्भाव करनेवाले जो जो महापुरुष पृथ्वी-तलपर हुए हैं उनको उनके पहलेके सत्यशोधकोंकी शोधकी विरासत मिली थी। ऐसा कोई भी महापुरुष क्या तुम बता सकोगे
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