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धर्म और समाज
'एक शक्तिको थोड़ा बहुत होता ही रहता है । हम प्रत्येक अवस्थामें अपनी दैहिक, ऐन्द्रिक और मानसिक क्रियासे जो थोड़े बहुत परिचित रहा करते हैं, -सो किस कारणसे ? जिस कारणसे हमें अपनी क्रियाओंका संवेदन होता है वही चेतना शक्ति है और हम इससे अधिक या कम कुछ भी नहीं हैं । और कुछ हो या न हो, पर हम चेतनाशून्य कभी नहीं होते । चेतनाके साथ ही -साथ एक दूसरी शक्ति और ओतप्रोत है जिसे हम संकल्प शक्ति कहते हैं । चेतना जो कुछ समझती सोचती है उसको क्रियाकारी बनानेका या उसे मूर्तरूप देनेका चेतनाके साथ अन्य कोई बल न होता तो उसकी सारी समझ बेकार होती और हम जहाँ के तहाँ बने रहते । हम अनुभव करते हैं कि समझ, जानकारी या दर्शनके अनुसार यदि एक बार संकल्प हुआ तो चेतना पूर्णतया कार्याभिमुख हो जाती है । जैसे कूदनेवाला संकल्प करता है तो सारा बल - संचित होकर उसे कुदा डालता है । संकल्प शक्तिका कार्य है बलको बिखरनेसे -रोकना । संकल्पसे संचित बल संचित भाफ़के बल जैसा होता है । संकल्प की - मदद मिली कि चेतना गतिशील हुई और फिर अपना साध्य सिद्ध करके ही - संतुष्ट हुई । इस गतिशीलताको चेतनाका वीर्य समझना चाहिए । इस तरह जीवन-शक्तिके प्रधान तीन अंश हैं—- चेतना, संकल्प और वीर्य या बल । इस त्रिअंशी शक्तिको ही जीवन-शक्ति समझिए, जिसका अनुभव हमें प्रत्येक छोटे बड़े सर्जन-कार्यमें होता है । अगर समझ न हो, संकल्प न हो और 'पुरुषार्थ - वीर्यगति - न हो, तो कोई भी सर्जन नहीं हो सकता । ध्यानमें रहे कि जगतमें ऐसा कोई छोटा बड़ा जीवनधारी नहीं है जो किसी न किसी प्रकार -सर्जन न करता हो। इससे प्राणीमात्रमें उक्त त्रिअंशी जीवन-शक्तिका पता चल जाता है । यों तो जैसे हम अपने आपमें प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं वैसे ही अन्य प्राणियोंके सर्जन-कार्यसे भी उनमें मौजूद उस शक्तिका अनुमान कर सकते हैं । फिर भी उसका अनुभव, और सो भी यथार्थ अनुभव, एक अलग वस्तु है ।
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यदि कोई सामने खड़ी दीवालसे इन्कार करे, तो हम उसे मानेंगे नहीं । हम तो उसका अस्तित्व ही अनुभव करेंगे । इस तरह अपनेमें और दूसरोंमें -मौजूद उस त्रिअंशी शक्तिके अस्तित्वका, उसके सामर्थ्यका, अनुभव करना जीवन-शक्तिका यथार्थ अनुभव है ।
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