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तर्कभाषा है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई १०x४॥ इञ्च है। प्रत्येक पृष्ठमें १७ पंक्तियाँ हैं । प्रत्येक पंक्तिमें ४४ से ५५ तक अक्षर संख्या है। संशोधित और टिप्पण युक्त है। पानीसे भीगी हुई होनेपर भी लिपि बिगड़ी नहीं है। जीर्णपाय है। इसके अन्तमें पुष्पिका आदि कुछ नहीं है।
व०-यह प्रति संघके भण्डारगत डिब्बा नं० २७ पोथी नं० २५ में मौजूद है। इसके २२ पत्र हैं। जिनमें हर एक पृष्ठमें पंक्ति १५-१५ और प्रत्येक पंक्ति में ३८-४० अक्षर संख्या है । इसकी लम्बाई-चौड़ाई १०x४॥ ईञ्च है।
आभारप्रदर्शन प्रस्तुत संस्करणमें सर्वप्रथम सहायक होनेवाले वयोवृद्ध सम्मानार्ह प्रवर्तक श्रीमत् कान्तिविजयजीके प्रशिष्य श्रद्धेय मुनि श्री पुण्यविजयजी हैं जिन्होंने न केवल लिखित सब प्रतियोंको देकर ही मदद की है बक्षिक उन प्रतियोंका मिलान करके पाठान्तर लेने और तत्सम्बन्धी अन्यान्य कार्यमें भी शुरूसे अन्त तक पूरा समय और मनोयोग देकर मदद की है। मैं अपने मित्र पं० दलसुख मालवणियाके साथ ई० स० १०.३५ के अप्रैल की ३० तारीखको पाटन इस कार्य निमित्त गया तमी श्रीमान् मुनि पुण्यविजयजीने अपना नियत और आवश्यक कार्य छोड़कर हम लोगोंको प्रस्तुत कार्यमें पूरा योग दिया। इतनी सरलतासे और त्वरासे उनकी मदद न मिलती तो अन्य सब सुविधाएँ होनेपर भी प्रस्तुत संस्करण आसानीसे इस तरह तैयार होने न पाता। अतएव सर्वप्रथम उक्त मुनिश्रीके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना मेरा प्राथमिक कर्तव्य है। तत्पश्चात मैं अपने विद्यागरु पं० बालकृष्ण मिश्र जो हिन्दू युनिवर्सिटी गत ओरिएण्टल कोलेजके प्रीन्सिपल हैं और जो सर्वतन्त्र स्वतन्त्र हैं, खास न्याय और वेदान्तके मुख्य अध्यापक हैं उनके प्रति सबहुमान कृतज्ञता प्रदर्शित करता हूँ। यों तो मैं जो कुछ सोचता-बोलता-लिखता हूँ वह सब मेरे उक्त विद्यागुरुका ही अनुग्रह है पर प्रस्तुत तर्कभाषाके संस्करणमें उन्होंने मुझको ख़ास मदद की है । जब इस तर्कभाषाके ऊपर वृत्ति लिखनेका विचार हुवा और उसका तात्पर्य अंश मैंने लिखा तब मैं उस अंशको अपने उक्त विद्यागुरुजीको सुनाने पहुँचा। उन्होंने मेरे लिखित तात्पर्यवाले भागको ध्यानसे सुन लिया और यत्र तत्र परिमार्जन भी सुझावा जिसे मैंने सश्रद्ध स्वीकार कर लिया। इसके अलावा तात्पर्याश लिखते समय भी उन्होंने जब जब जरूरत हुई तब तब मुझको अनेक बार अपने परामर्शसे प्रोत्साहित और निःश किया। उनकी सहज उदारतापूर्ण और सदासुलभ मददके सिवाय मैं इतने निःसंकोचत्व और आत्मविश्वासके साथ स्वतन्त्र भावसे तात्पर्य वर्णन करने में कमी समर्थ न होता। अतएव मैं उनका न केवल कृतज्ञ ही हूँ प्रत्युत सदा ऋणी मी हूँ । इस जगह मैं अपने सखा एवं विद्यार्थी जिन्होंने प्रस्तुत पुस्तक छपते समय प्रूफ देखने आदिमें हार्दिक सहयोग किया है उनका भी आभारी हूँ। उनमेंसे पहिले मुनि कृष्णचन्द्रजी हैं जो पञ्जाब पञ्चकूला जैनेन्द्र गुरुकुलके भूतपूर्व अधिष्ठाता हैं और सम्प्रति काशीमें जैन आगम और जैन तर्कके अभ्यासके अलावा मायुर्वेदका मी विशिष्ट अध्ययन करते हैं। उन्होंने अनेक बार अपने वैयाकरणत्व तथा तीक्ष्ण दृष्टिके द्वारा प्रूफ
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