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भारतीय प्रमाणशास्त्र में प्रमाणमीमांसा का स्थान
३१ १०. प्रमेय और प्रमाता का स्वरूप-प्रमेय जड़ हो या चेतन, पर सबका स्वरूप जैन तार्किकों ने अनेकान्त-दृष्टि का उपयोग करके ही स्थापित किया और सर्व व्यापक रूप से कह दिया कि वस्तु-मात्र परिणामी नित्य है। नित्यता के ऐकान्तिक आग्रह की धुन में अनुभव-सिद्ध अनित्यता का इनकार करने की अशक्यता देख कर कुछ तत्त्व-चिंतक गुण, धर्म मादि में अनित्यता घटा कर उसका जो मेल- नित्य-द्रव्य के साथ खींचातानी से बिठा रहे थे और कुछ तत्त्वचिंतक अनित्यता के ऐकान्तिक आग्रह की धुन में अनुभव सिद्ध नित्यता को भी जो कल्पना मात्र बतला रहे थे उन दोनों में जैन तार्किकों ने स्पष्टतया अनुभव की आंशिक असंगति देखी और पूरे विश्वास के साथ बल-पूर्वक प्रतिपादन कर दिया कि जब अनुभव न केवल नित्यता का है और न केवल अनित्यता का तब किसी एक अंश को मान कर दूसरे अंश का बलात् मेल बैठाने की अपेक्षा दोनों अंशों को तुल्य सत्य-रूप में स्वीकार करना ही न्याय-संगत है। इस प्रतिपादन में दिखाई देने वाले विरोध का परिहार उन्होंने द्रव्य और पर्याय या सामान्य और विशेष प्राहिणी दो दृष्टियों के स्पष्ट पृथक्करणं से कर दिया। द्रव्य-पर्याय की व्यापक दृष्टि का यह विकास जैन-परम्परा की ही देन है ।
जीवात्मा, परमात्मा और ईश्वर के संबन्ध में सद्गुण-विकास या आचरण-साफल्य की दृष्टि से असंगत ऐसी अनेक कल्पनाएँ तत्त्व-चिंतन के प्रदेश में प्रचलित थीं। एकमात्र परमात्मा ही है या उससे भिन्न अनेक जीवात्मा चेतन भी हैं, पर तत्त्वतः वे सभी कूटस्थ निर्विकार और निलेप ही हैं । जो कुछ दोष या बन्धन है वह या तो निरा भ्रान्ति मात्र है या जड़ प्रकृति गत है । इस मतलब का तत्व-चिंतन एक ओर था दूसरी ओर ऐसा भी चिंतन था जो कहता कि चैतन्य तो है, उसमें दोष, वासना आदि का लगाव तथा उससे अलग होने की योग्यता भी है पर उस चैतन्य की प्रवाह-बद्ध धारा में कोई स्थिर तत्व नहीं है। इन दोनों प्रकार के तत्त्व-चिंतनों में सद्गुण-विकास और सदाचार-साफल्य की संगति सरलता से नहीं बैठ पाती । वैयक्तिक या सामूहिक जीवन में सद्गुण विकास और सदाचार के निर्माण के सिवाय
और किसी प्रकार से सामंजस्य जम नहीं सकता। यह सोच कर जैन-चिंतकों ने आत्मा का स्वरूप ऐसा माना जिसमें एक सी परमात्म शकि भी रहे और जिसमें दोष, वासना आदि के निवारण द्वारा जीवन-शुद्धि की वास्तविक जवाबदेही भी रहे । आत्मविषयक जैन-चिंतन में वास्तविक परमात्म-शक्ति या ईश्वर-भाव का तुल्य रूप से स्थान है, अनुभव सिद्ध आगन्तुक दोषों के निवारणार्थ तथा सहज-शुद्धि के आविर्भावार्थ प्रयत्न का पूरा अवकाश है। इसी व्यवहार-सिद्ध बुद्धि में से जीवमेदवाद तथा देहप्रमाणवाद स्थापित हुए जो संमिलित रूप से एक मात्र जैन परम्परा में ही हैं।
११. सर्वज्ञत्व समर्थन-प्रमाण-शास्त्र में जैन सर्वज्ञ-वाद दो दृष्टियों से अपना खास स्थान रखता है । एक तो यह कि वह जीव-सर्वज्ञ वाद है जिसमें हर कोई अधिकारी की सर्वज्ञत्व
१ टिप्पण पृ० ५३. पं० ६ । पृ० ५४. पं० १७ । पृ० ५७. पं० २१ ।। २ टिप्पण पृ. ७०.५० ८ । पृ० १३६. पं० ११ ।
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