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________________ २६ प्रस्तावना ही संग्रहनय है । गुणधर्म कृत या व्यक्तित्व कृत भेदों की ओर झुकने वाली मनोवृत्ति से किया जाने वाला उसी विश्वका दर्शन व्यवहारनय कहलाता है, क्योंकि उसमें लोकसिद्ध व्यवहारों की भूमिका रूप भेदों का खास स्थान है। इस दर्शन में 'सत्' शब्द को अर्थ मर्यादा अखण्डित न रह कर अनेक खण्डों में विभाजित हो जाती है। वही भेदगामिनी मनोवृत्ति या अपेक्षा सिर्फ कालकृत भेदों की ओर झुक कर सिर्फ वर्तमान को ही कार्यक्षम होने के कारण जब सत् रूप से देखती है और अतीत अनागत को 'सत्' शब्द की अर्थ मर्यादा में से हटा देती है तब उसके द्वारा फलित होने वाला विश्व का दर्शन ऋजुसूत्र नय है। क्योंकि वह अतीत-अनागत के चक्रव्यूह को छोड़ कर सिर्फ वर्तमान की सीधी रेखा पर चलता है। उपर्युक्त तीनों मनोवृत्तियाँ ऐसी हैं जो शब्द का या शब्द के गुण-धर्मों का आश्रय बिना लिये ही किसी भी वस्तु का चिंतन करती हैं । अतएव वे तीनों प्रकार के चिंतन अर्थनय हैं। पर ऐसी भी मनोवृत्ति होती है जो शब्द के गुण-धर्मों का आश्रय ले कर ही अर्थ का विचार करती है । अतएव ऐसी मनोवृत्ति से फलित अर्थ चिंतन शब्दनय कहे जाते हैं। शाब्दिक लोग ही. मुख्यता शब्दनय के अधिकारी हैं। क्योंकि उन्हीं के विविध दृष्टि बिन्दुओं से शब्दनय में विविधता आई है। जो शाब्दिक सभी शब्दों को अखण्ड अर्थात् अव्युत्पन्न मानते हैं वे व्युत्पत्ति भेद से अर्थ भेद न मानने पर भी लिंग, पुरुष, काल आदि अन्य प्रकार के शब्द धर्मों के भेद के आधार पर अर्थ का वैविध्य बतलाते हैं। उनका वह अर्थ-भेद का दर्शन शब्दनय या साम्प्रतनय है । प्रत्येक शब्द को व्युत्पत्ति सिद्ध ही मानने वाली मनोवृत्ति से विचार करने वाले शाब्दिक पर्याय अर्थात् एकार्थक समझे जाने वाले शब्दों के अर्थ में भी व्युत्पत्ति भेद से भेद बतलाते हैं। उनका बह शक्र, इन्द्र आदि जैसे पर्याय शब्दों के अर्थभेद का दर्शन समभिरूढनय कहलाता है। व्युत्पत्ति के भेद से ही नहीं, बल्कि एक ही व्युत्पत्ति से फलित होने वाले अर्थ की मौजूदगी और गैर-मौजूदगी के भेद के कारण से भी जो दर्शन अर्थमेद मानता है वह एवंभूतनय कहलाता है। इन तार्किक छः नयों के अलावा एक नैगम नाम का नय भी है। जिस में निगम अर्थात् देश रूढ़ि के अनुसार अभेदगामी और भेदगामी सब प्रकार के विचारों का समावेश माना गया है। प्रधानतया ये ही सात नय हैं। पर किसी एक अंशको अर्थात् दृष्टिकोण को अवलंबित करके प्रवृत्त होने वाले सब प्रकार के विचार उस उस अपेक्षा के सूचक नय ही हैं। - शास्त्र में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे दो नय भी प्रसिद्ध हैं पर वे नय उपर्युक्त सात नयों से अलग नहीं हैं किन्तु उन्हीं का संक्षिप्त वर्गीकरण या भूमिकामात्र हैं। द्रव्य अर्थात् सामान्य, अन्वय, अभेद या एकत्व को विषय करने वाला विचारमार्ग द्रव्यार्थिकनय है। नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीनों द्रव्यार्थिक ही हैं। इनमें से संग्रह तो शुद्ध अभेद का विचारक होने से शुद्ध या मूल ही द्रव्यार्थिक है जब कि व्यवहार और नेगम की प्रवृत्ति भेदगामी होकर भी किसी न किसी प्रकार के अभेद को भी अवलंबित करके ही चलती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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