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प्रस्तावना पुंज माननेवाले अपने-अपने लक्ष्य की सिद्धि तभी कर सकते थे जब वे अपने अभीष्ट तत्त्व को अनिर्वचनीय अर्थात् अनभिलाप्य-शब्दागोचर मानें, क्योंकि शब्द के द्वारा निर्वचन मानने पर न तो अखण्ड सत् तत्त्व की सिद्धि हो सकती है और न निरंश भेदतत्त्व की। निर्वचन करना ही मानों अखण्डता या निरंशता का लोप कर देना है। इस तरह अखण्ड और निरंशवाद में से अनिर्वचनीयत्ववाद आप ही आप फलित हुआ। पर उस वाद के सामने लक्षणवादी वैशेषिक आदि तार्किक हुए, जो ऐसा मानते हैं कि वस्तुमात्र का निर्वचन करना या लक्षण बनाना शक्य ही नहीं बरिक वास्तविक भी हो सकता है । इसमें से निर्वचनीयत्ववाद का जन्म हुआ और वे-अनिर्वचनीय तथा निर्वचनीयवाद आपसमें टकराने लगे।
इसी प्रकार कोई मानते थे कि प्रमाण चाहे जो हो पर हेतु अर्थात् तर्क के सिवाय किसी से अन्तिम निश्चय करना भयास्पद है। जब दूसरे कोई मानते थे कि हेतुवाद स्वतंत्र बल नहीं रखता। ऐसा बल आगम में ही होने से वही मूर्धन्य प्रमाण है। इसीसे वे दोनों बाद परस्पर टकराते थे। दैवज्ञ कहता था कि सब कुछ दैवाधीन है। पौरुष स्वतन्त्ररूप से कुछ कर नहीं सकता। पौरुषवादी ठीक इससे उलटा कहता था कि पौरुष ही स्वतन्त्रभाव से कार्यकर है। अतएव वे दोनों वाद एक दूसरे को असत्य ही मानते रहे । अर्थनय-पदार्थवादी शब्द की और शब्दनय-शाब्दिक अर्थ की परवा न करके परस्पर खण्डन करने में प्रवृत्त थे । कोई अभाव को भाव से पृथक् ही मानता तो दूसरा कोई उसे भाव स्वरूप ही मानता था और वे दोनों भाव से अभाव को पृथक् मानने न मानने के बारे में परस्पर प्रतिपक्षभाव धारण करते रहे । कोई प्रमाता से प्रमाण और प्रमिति को अत्यन्त भिन्न मानते तो दूसरे कोई उससे उन्हें अभिन्न मानते थे। कोई वर्णाश्रम विहित कर्म मात्र पर भार देकर उसीसे इष्ट प्राप्ति बतलाते तो कोई ज्ञानमात्र से आनन्दाप्ति प्रतिपादन करते जब तीसरे कोई भक्ति को ही परम पद का साधन मानते रहे और वे सभी एक दूसरे का आवेशपूर्वक खण्डन करते रहे। इस तरह तत्त्वज्ञान के व आचार के छोटे-बड़े अनेक मुद्दों पर परस्पर बिलकुल विरोधी ऐसे अनेक एकान्त मत प्रचलित हुए।
. उन एकान्तों की पारस्परिक वाद-लीला देखकर अनेकान्तदृष्टि के उत्तराधिकारी आचार्यों को विचार आया कि असल में ये सब वाद जो कि अपनी अपनी सत्यता का दावा करते हैं वे आपसमें इतने लड़ते हैं क्यों ? क्या उन सब में कोई तथ्यांश ही नहीं, या सब में तथ्यांश है, या किसी किसी में तथ्यांश है, या सभी पूर्ण सत्य है ! इस प्रश्न के अन्तर्मुख जबाब में से उन्हें एक चाबी मिल गई जिसके द्वारा उन्हें सब विरोधों का समाधान हो गया
और पूरे सत्य का दर्शन हुआ। वही चाबी अनेकान्तवाद की भूमिका रूप अनेकान्तदृष्टि है । इस दृष्टि के द्वारा उन्होंने देखा कि प्रत्येक सयुक्तिक वाद अमुक अमुक दृष्टि से अमुक अमुक सीमा तक सत्य है । फिर भी जब कोई एक वाद दूसरे वाद की आधारभूत विचार-सरणी और उस वाद की सीमा का विचार नहीं करता और अपनी आधारभूत दृष्टि तथा अपने विषय की सीमा में ही सब कुछ मान लेता है, तब उसे किसी भी तरह दुसरे वाद की सत्यता मालम
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