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________________ १४२ प्रमाणमीमांसायाः [पृ० ३६, पं० १५दिगम्बर परम्परा में तो यह असंगति इसलिये नहीं मानी जा सकती कि वह आर्यरक्षित के अनुयोगद्वार को मानती ही नहीं। अतएव अगर दिगम्बरीय तार्किक प्रकलङ्क प्रादि ने न्यायदर्शन संमत अनुमानत्रैविध्य का खण्डन किया तो वह अपने पूर्वाचार्यों के मार्ग से किसी भी प्रकार विरुद्ध नहीं कहा जा सकता। पर श्वेतांबरीय परम्परा की बात दूसरी है। अभयदेव आदि श्वेताम्बरीय तार्किक जिन्होंने न्यायदर्शन संमत अनुमानत्रैविध्य का खण्डन किया, वे तो अनुमानविष्य के पक्षपाती आर्यरक्षित के अनुगामी थे। अतएव उनका वह खण्डन अपने पूर्वाचार्य के उस समर्थन से स्पष्टयतया मेल नहीं खाता। . आचार्य हेमचन्द्र ने शायद सोचा कि श्वेताम्बरीय तार्किक अकलङ्क प्रादि दिगम्बर तार्किकों का अनुसरण करते हुए एक स्वपरम्परा की असंगति में पड़ गए हैं। इसी विचार 10 से उन्होंने शायद अपनी व्याख्या में त्रिविध अनुमान के खण्डन का परित्याग किया। संभव है इसी हेमचन्द्रोपज्ञ असंगति परिहार का आदर उपाध्याय यशोविजयजी ने भी किया और अपने तर्कभाषा ग्रन्थ में वैदिक परम्परा संमत अनुमानत्रैविध्य का निरास नहीं किया, जब कि हेतु के न्यायसंमत पाञ्चरूप्य का निरास अवश्य किया। पृ० ३६. पं० १७. 'भिक्षवः' नीचे दिया जानेवाला हेतु और हेत्वाभासों की संख्या का. 15 कोष्ठक दिङ्नाग के हेतुचक्र और न्यायमुख ( कारिका २ ) के अनुसार है। दिङ नाग के प्रस्तुत मन्तव्य को 'प्रत्र दिङ नागेन' ऐसा कह करके वाचस्पति ने ( तात्पर्य पृ० २८६ ) उद्धृत किया है वह इस प्रकार__ "सपक्षे सनसन् द्वेधा पक्षधर्मः पुनस्विधा । प्रत्येकमसपक्ष च सदसद्विविधत्वतः ॥ 20 तत्र यः सन् सजातीये द्वेधा चासंस्तदत्यये । स हेतुर्विपरीतोऽस्माद्विरुद्धोऽन्यत्वनिश्चितः ।।" ये कारिकाएँ विद्याभूषण ने प्रमाणसमुच्चय के तृतीय परिच्छेद की बतलाई हैं-देखोIndian Logic. P. 248. हेतु का सपक्ष और विपक्ष में, गणित के सिद्धान्त के अनुसार जितने भी प्रकार से 25 रखना सम्भव है उन सभी प्रकारों का समावेश इस चक्र में किया गया है। फलत: यही सिद्ध होता है कि हेतु भिन्न भिन्न नव ही प्रकार से सपक्ष और विपक्ष में रह सकता है इससे ज़्यादह और कम प्रकार से नहीं। उन नव प्रकारों में से सिर्फ दो ही सत् हेतु हैं और बाकी के सात हेत्वाभास। उन सात हेत्वाभासों में दो तो सत् हेतु से अत्यन्त उलटे होने के कारण विरुद्ध कहे जाते हैं। बाकी के पाँच अनैकान्तिक-सन्दिग्ध कहे जाते हैं क्योंकि उनका 30 सपक्ष-विपक्ष में रहना अनिश्चित प्रकार से होता है। या तो वे सपक्ष में रहकर विपक्षक देश में-जहाँ हेतु का रहना उचित नहीं-भी रहते हैं या सभी सपक्षों में रहकर सभी विपक्षों में भी रहते हैं। अथवा सिफ़ पक्ष में ही रहकर किसी सपक्ष या विपक्ष में रहते ही नहीं। अन्तिम स्थिति में तो हेतु असाधारण या अव्यापक अनेकान्तिक हेत्वाभास हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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