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________________ वृद्धिपत्रक। पृ० १. पं० १. 'दर्शन'-दर्शन शब्द के तीन अर्थ सभी परम्परामों में प्रसिद्ध हैं. जैसेघटदर्शन इत्यादि व्यवहार में चातुष ज्ञान अर्थ में, आत्मदर्शन इत्यादि व्यवहार में साक्षात्कार अर्थ में और न्यायदर्शन, सांख्यदर्शन इत्यादि व्यवहार में खास खास परम्परासम्मत निश्चित विचारसरणी अर्थ में दर्शन शब्द का प्रयोग सर्वसम्मत है पर उसके दो अर्थ जो जैनपरम्परा में प्रसिद्ध हैं वे अन्य परम्पराओं में प्रसिद्ध नहीं। उनमें से एक अर्थ तो है । श्रद्धान और दूसरा अर्थ है सामान्यबोध या आलोचन मात्र । जैनशास्त्रों में तत्त्वश्रद्धा को दर्शन पद से व्यवहृत किया जाता है जैसे-'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्'-तत्त्वार्थ० १. २ । इसी तरह वस्तु के निर्विशेषसत्तामात्र के बोध को भी दर्शन कहा जाता है जैसे-'विषयविषयिसन्निपातानन्तरसमुदभूतसत्तामात्रगोचरदर्शनात -प्रमाणन० २.७। दर्शन शब्द के उक्त पाँच अर्थों में से अन्तिम सामान्यबोधरूप अर्थ लेकर ही यहाँ विचार प्रस्तुत है। इसके 10 सम्बन्ध में यहाँ छः मुद्दों पर कुछ विचार किया जाता है। १ अस्तित्व-जिस बोध में वस्तु का निर्विशेषणस्वरूपमात्र भासित हो ऐसे बोध का अस्तित्व एक या दूसरे नाम से तीन परम्पराओं के सिवाय सभी परम्पराएँ स्वीकार करती हैं। जैनपरम्परा जिसे दर्शन कहती है उसी सामान्यमात्र बोध को न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग तथा पूर्वोत्तरमीमांसक निर्विकल्पक और पालोचनमात्र कहते हैं। बौद्धपरम्परा में भी उसका 15 निर्विकल्पक नाम प्रसिद्ध है। उक्त सभी दर्शन ऐसा मानते हैं कि ज्ञानव्यापार के उत्पत्तिक्रम में सर्वप्रथम ऐसे बोध का स्थान अनिवार्यरूप से आता है जो ग्राह्य विषय के सन्मात्र स्वरूप को ग्रहण करे पर जिसमें कोई अंश विशेष्यविशेषणरूप से भासित न हो। फिर भी२ मध्य और वल्लभ की दो वेदान्त परम्पराएँ और तीसरी भर्तृहरि और उसके पूर्ववर्ती शाब्दिको की परम्परा ज्ञानव्यापार के उत्पत्तिक्रम में किसी भी प्रकार के सामान्यमात्र बोध का अस्तित्व 20 स्वीकार नहीं करती। उक्त तीन परम्पराओं का मन्तव्य है कि ऐसा बोध कोई हो ही नहीं सकता जिसमें कोई न कोई विशेष भासित न हो या जिसमें किसी भी प्रकार का विशेष्य १दर्शन शब्द का आलोचन अर्थ, जिसका दूसरा नाम अनाकार उपयोग भी है, यहाँ कहा गया है सो श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों परम्परा की अति प्रसिद्ध मान्यता को लेकर। वस्तुतः दोनों परम्पराओं में अनाकार उपयोग के सिवाय अन्य अर्थ भी दर्शन शब्द के देखे जाते हैं। उदाहरणार्थ-लिङ्ग के विना ही साक्षात् होनेवाला बोध अनाकार या दर्शन है और लिङ्ग सापेक्ष बोध साकार या ज्ञान है--यह एक मत । दूसरा मत ऐसा भी है कि वर्तमानमात्रग्राही बोध-दर्शन और त्रैकालिक ग्राही बोध-ज्ञान -तत्त्वार्थ भा०टी०२.६ । दिगम्बरीय धवला टीका का ऐसा भी मत है कि जो श्रात्ममात्र का अवलोकन वह दर्शन और जो बाह्य अर्थ का प्रकाश वह शान। यह मत बृहद्व्यसंग्रहटीका ( गा० ४४) तथा लघीयत्रयी की अभयचन्द्रकृत टीका (१.५) में निदिष्ट है। 3 Indian Psychology: Perception. P. 52-54 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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