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पृ० ६५. पं० २.] भाषाटिप्पणानि ।
१२३ सकती। अतएव अकलङ्क के मतानुसार यह फलित हुमा कि जहाँ एक की सिद्धि होगी वहाँ दूसरे की प्रसिद्धि अनिवार्य है, और जिस पक्ष की सिद्धि हो उसी की जय । अतएव सिद्धि और प्रसिद्धि अथवा दूसरे शब्दों में जय और पराजय समव्याप्तिक हैं। कोई पराजय जयशून्य नहीं और कोई जय पराजयशून्य नहीं। धर्मकीर्तिकृत व्यवस्था में अकलङ्क की सूक्ष्म अहिंसाप्रकृति ने एक त्रुटि देख ली जान पड़ती है। वह यह कि पूर्वोक्त उदाहरण में कर्तव्य- 5 पालन न करने मात्र से अगर प्रतिवादी को पराजित समझा जाय तो दुष्टसाधन के प्रयोग में सम्यक् साधन के प्रयोग रूप कर्त्तव्य का पालन न होने से वादी भी पराजित क्यों न समझा जाय ?। अगर धर्मकीति वादी को पराजित नहीं मानते तो फिर उन्हें प्रतिवादी को भी पराजित नहीं मानना चाहिए। इस तरह अकलङ्क ने पूर्वोक्त उदाहरण में केवल प्रतिवादी को पराजित मान लेने की व्यवस्था को एकदेशीय एवं अन्यायमूलक मानकर पूर्ण समभाव- 10 मूलक सीधा मार्ग बाँध दिया कि अपने पक्ष की सिद्धि करना ही जय है। और ऐसी सिद्धि में दूसरे पक्ष का निराकरण अवश्य गर्भित है। प्रकलङ्कोपज्ञ यह जय-पराजय व्यवस्था का मार्ग अन्तिम है, क्योंकि इसके ऊपर किसी बौद्धाचार्य ने या ब्राह्मण विद्वानों ने आपत्ति नहीं उठाई। जैन परम्परा में जय-पराजय व्यवस्था का यह एक ही मार्ग प्रचलित है, जिसका स्वीकार सभी दिगम्बर-श्वेताम्बर तार्किकों ने किया है और जिसके समर्थन में विद्यानन्द 15 ( तत्त्वार्थश्लो. पृ० २८१), प्रभाचन्द्र (प्रमेयक० पृ. १६४). वादिराज (न्यायवि० टी० पृ० ५२७B) प्रादि ने बड़े विस्तार से पूर्वकालीन और समकालीन मतान्तरों का निरास भी किया है। प्राचार्य हेमचन्द्र भी इस विषय में भट्टारक प्रकलङ्क के ही अनुगामी हैं। __ सूत्र ३४ की वृत्ति में प्राचार्य हेमचन्द्र ने न्यायदर्शनानुसारी निग्रहस्थानों का पूर्वपतरूप से जो वर्णन किया है वह अक्षरश: जयन्त की न्यायकलिका (पृ. २१-२७ ) के अनुसार है 20 और उन्हीं निग्रहस्थानों का जो खण्डन किया है वह अक्षरश: प्रमेयकमलमार्तण्डानुसारी (पृ० २०० B.-२०३ A) है। इसी तरह धर्मकीर्तिसम्मत ( वादन्य य ) निग्रहस्थानों का वर्णन और उसका खण्डन भी अक्षरशः प्रमेयकमलमार्तण्ड के अनुसार है। यद्यपि न्यायसम्मत निग्रहस्थानों का निर्देश तथा खण्डन तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक (पृ० २८३ से ) में भी है तथा धर्मकीर्तिसम्मत निग्रहस्थानों का वर्णन तथा खंडन वाचस्पति मिश्र ने तात्पर्यटीका (७०३से) 25. में, जयन्त ने न्यायमंजरी ( पृ० ६४६ ) और विद्यानन्द ने अष्टसहस्रो ( पृ. ८१ ) में किया है, पर हेमचन्द्रीय वर्णन और खण्डन प्रमेयकमलमार्तण्ड से ही शब्दश: मिलता है।
पृ०. ६५ पं०.२. 'विरुद्धम'-"तदुक्तम्-विरुद्धं हेतुमुद्भाव्य वादिन जयतीतरः। प्राभासान्तरमुत्पाद्य पक्षसिद्धिमपेक्षते ॥"--तत्त्वार्थश्लो० पृ० २८० । न्यायवि. टी० लि. पृ० ५२८ AI "प्रकलकोप्यभ्यधात्-विरुद्धं हेतुमुद्भाव्य"-रत्नाकरा० ८. २२ ।
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