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प्रमाणमीमांसाया: . [पृ० ६३. पं० ६और विगृह्यसम्भाषा ऐसे दो भेद किए हैं (चरकसं० पृ० २६३); जब कि न्याय परम्परा ने कथा के वाद, जल्प, वितण्डा ये तीन भेद किए हैं-न्यायवा० पृ० १४६ । वैद्यक परम्परा की सन्धायसम्भाषा ही न्याय परम्परा की वाद कथा है। क्योंकि वैद्यक परम्परा मे
सन्धायसम्भाषा के जो और जैसे अधिकारी बताए गए हैं (चरकसं० पृ० २६३) वे और वैसे ही 5 अधिकारी वाद कथा के न्याय परम्परा ( न्यायसू० ४. २. ४८) में माने गए हैं। सन्धाय. सम्भाषा और वाद कथा का प्रयोजन भी दोनों परम्पराओं में एक ही-तत्त्वनिर्णय-है।
वैद्यक परम्परा जिस चर्चा को विगृह्यसम्भाषा कहती है उसी को न्याय परम्परा जल्प और वितण्डा कथा कहती है। चरक ने विगृह्यसम्भाषा ऐसा सामान्य नाम रखकर फिर उसी
के जल्प और वितण्डा ये दो भेद बताए हैं-पृ० २६५ । न्याय परम्परा में इन दो भेदों 10 के वास्ते 'विगृह्यसम्भाषा' शब्द प्रसिद्ध नहीं है, पर उसमें उक्त दोनों भेद विजिगीषुकथा
शब्द से व्यवहृत होते हैं-न्यायवा० पृ० १४६ । अतएव वैद्यक परम्परा का 'विगृह्यसम्भाषा' और न्याय परम्परा का 'विजिगीषुकथा' ये दो शब्द बिलकुल समानार्थक हैं । न्याय परम्परा में यद्यपि विगृह्यसम्भाषा इस शब्द का खास व्यवहार नहीं है, तथापि उसका प्रतिबिम्बप्राय
'विगृह्यकथन' शब्द मूल न्यायसूत्र ( ४. २. ५१ ) में ही प्रयुक्त है। इस शाब्दिक और 15 आकि संक्षिप्त तुलना से इस बात में कोई सन्देह नहीं रहता कि मूल में न्याय और वैद्यक - दोनों परम्पराएँ एक ही विचार के दो भिन्न प्रवाह मात्र हैं। बौद्ध परम्परा में खास तौर से
कथा अर्थ में वाद शब्द के प्रयोग की प्रधानता रही है। कथा के वाद, जल्प प्रादि अवान्तर भेदों के वास्ते उस परम्परा में प्राय: सद्-धर्मवाद, विवाद प्रादि शब्द प्रयुक्त किए गए हैं।
जैन परम्परामें कथा अर्थ में क्वचित् जल्प शब्द का प्रयोग है पर सामान्य रूप से सर्वत्र उस 20 अर्थ में वाद शब्द का ही प्रयोग देखा जाता है। जैन परम्परा कथा के जल्प और वितण्डा
दो प्रकारों को प्रयोगयोग्य नहीं मानती, अतएव उसके मत से वाद शब्द का वही अर्थ है जो वैद्यक परम्परा में सन्धायसम्भाषा शब्द का और न्याय परम्परा में वादकथा का है। बौद्ध तार्किकों ने भी आगे जाकर जल्प और वितण्डा कथा को त्याज्य बतलाकर केवल वाद
कथा को ही कर्त्तव्य रूप कहा है। अतएव इस पिछली बौद्ध मान्यता और जैन परम्परा के 26 बीच वाद शब्द के अर्थ में कोई अन्तर नहीं रहता। . . वैद्यकीय सन्धायसम्भाषा के अधिकारी को बतलाते हुए चरक ने महत्व का एक
अनसूयक विशेषण दिया है, जिसका अर्थ है कि वह अधिकारी असूयादोषमुक्त हो। अक्षपाद ने भी वादकथा के अधिकारियों के वर्णन में 'अनसूयि' विशेषण दिया है। इससे
सिद्ध है कि चरक और अक्षपाद दोनों के मत से वादकथा के अधिकारियों में कोई अन्तर 30 नहीं। इसी भाव को पिछले नैयायिकों ने वाद का लक्षण करते हुए एक ही शब्द में व्यक्त
कर दिया है कि-तत्त्वबुभुत्सुकथा वाद है-केशव० तर्कभाषा पृ० १२६ । चरक के कथनानुसार
१ "किं तत् जल्पं विदुः ? इत्याह-समवचनम् ।-सिद्धिवि० टी० पृ० २५४ B।
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