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१० ५२. पं० ८.]
भाषाटिप्पणानि । काल से ही स्थिर किया है। दिगम्बर-श्वेताम्बर सभी जैनाचार्य अवयवप्रयोग में किसी एक संख्या को न मानकर श्रोता की न्यूनाधिक योग्यता के अनुसार न्यूनाधिक संख्या को मानते हैं।
माणिक्यनन्दी ने कम से कम प्रतिज्ञा-हेतु-इन दो अवयवों का प्रयोग स्वीकार करके विशिष्ट श्रोता की अपेक्षा से निगमन पर्यन्त पाँच अवयवों का भी प्रयोग स्वीकार किया । है-परी० ३. ३७.४६ । प्रा. हेमचन्द्र के प्रस्तुत सूत्रों के और उनकी स्वोपज्ञ वृत्ति के शब्दों से भी माणिक्यनन्दी कृत सूत्र और उनकी प्रभाचन्द्र आदि कृत वृत्ति का ही उक्त भाव फलित होता है अर्थात् आ० हेमचन्द्र भी कम से कम प्रतिज्ञाहेतु रूप अवयवद्वय को ही स्वीकार करके अन्त में पाँच अवयव को भी स्वीकार करते हैं; परन्तु वादिदेव का मन्तव्य इससे जुदा है। वादिदेव सूरि ने अपनी स्वोपज्ञ व्याख्या में श्रोता की विचित्रता बतलाते हुए यहाँ 10 तक मान लिया है कि विशिष्ट अधिकारी के वास्ते केवल हेतु का ही प्रयोग पर्याप्त है (स्याद्वादर० पृ० ५४८), जैसा कि बौद्धों ने भी माना है। अधिकारी विशेष के वास्ते प्रतिज्ञा और हेतु दो, अन्यविध अधिकारी के वास्ते प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण तीन, इसी तरह अन्य के वास्ते सोपनय चार, या सनिगमन पाँच अवयवों का प्रयोग स्वीकार किया है-स्याद्वादर. पृ० ५६४ । - इस जगह दिगम्बर परम्परा की अपेक्षा श्वेताम्बर परम्परा की एक खास विशेषता 15 भ्यान में रखनी चाहिए, जो ऐतिहासिक महत्त्व की है। वह यह है कि किसी भी दिगम्बर प्राचार्य ने उस प्रति प्राचीन भद्रबाहुक क मानी जानेवाली नियुक्ति में निर्दिष्ट व वर्णितर दश अवयवों का, जो वात्स्यायन कथित दश अवयवों से भिन्न हैं, उल्लेख तक नहीं किया है, जब कि सभी श्वेताम्बर तार्किकों (स्याद्वादर. पृ० ५६५ ) ने उत्कृष्टवाद कथा में अधिकारी विशेष के वास्ते पाँच अवयवों से आगे बढ़कर नियुक्तिगत दश अवयवों के प्रयोग का 20 भी नियुक्ति के ही अनुसार वर्णन किया है। जान पड़ता है इस तफावत का कारण दिगम्बर परम्परा के द्वारा आगम आदि प्राचीन साहित्य का त्यक्त होना-यही है।
एक बात माणिक्यनन्दी ने अपने सूत्र में कही है वह मार्के की जान पड़ती है। सो यह है कि दो और पांच अवयवों का प्रयोगभेद प्रदेश की अपेक्षा से समझना चाहिये अर्थात् वादप्रदेश में तो दो अवयवों का प्रयोग नियत है पर शास्त्रप्रदेश में अधिकारी के अनुसार दो 25 या पांच अवयवों का प्रयोग वैकल्पिक है। वादिदेव की एक खास बात भी स्मरण में रखने
१ "जिणवयण सिद्धं चेव भएणए कत्थई उदाहरणं। आसज्ज उ सोयारं हेऊ वि कहिञ्चि गणेज्जा ॥ कत्थइ पञ्चावयव दसहा वा सव्वहा न पडिसिद्धं । न य पुण सव्वं भएणई हंदी सविधार. मक्खायं ।" दश० नि० गा०४६,५०।
२ "ते उ पहनविभत्ती हेरविभत्ती विवक्खपडिसेहो दिलुतो श्रासङ्का तप्पडिसेहो निगमण च ॥"दश०नि० गा० १३७।
३ "दशावयवानेके नैयायिका वाक्ये सञ्चक्षते-जिज्ञासा संशयः शक्यप्राप्तिः प्रयोजन संशयव्युदास इति"-न्यायमा० १. १. ३२ ।
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