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पृ०५०.५० २४.]
भाषाटिप्पणानि। भेद से परार्थ अनुमान का भेद उक्त दो परम्पराओं में प्रसिद्ध नहीं है जैसा कि जैन परम्परा में प्रसिद्ध है। .
जैन परम्परा में उदाहरण आदि के प्रयोगभेद से परार्थ अनुमान का प्रयोगभेद मानने के अलावा हेतु के प्रयोगभेद से भी उसका भेद माना जाता है। हेतु के प्रयोगभेद की रीति सबसे पहले सिद्धसेन के न्यायावतार (का० १७ ) में स्थापित जान पड़ती है।। पिछले सभी दिगम्बर-श्वेताम्बर तार्किकों ने उसी हेतुप्रयोग की द्विविध रीति को निर्विवाद रूप से मान लिया है। प्रा० हेमचन्द्र ने भी उसी रीति को अपने सूत्रों में दर्शाया है।
. इस विषय में प्रा० हेमचन्द्र की रचना की विशेषता यह है कि धर्मकीर्ति के न्यायबिन्दु और उसकी धर्मोत्तरीयवृत्ति का (३.७) प्रस्तुत प्रकरण में शब्दश: अनुकरण पाया जाता है, जैसा कि अन्य पूर्ववर्ती जैन तर्कग्रन्थों में नहीं है।
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पृ० ५०. पं० ८. 'एतदुक्तं भवति'-तुलना-"एतदुक्तं भवति-अन्यदभिधेयमन्यत्प्रकाश्यं प्रयोजनम् । तत्राभिधेयापेक्षया वाचकत्वं भिद्यते । प्रकाश्यं त्वभिन्नम् । अन्वये हि कथिते वक्ष्यमाणेन न्यायेन व्यतिरेकगतिर्भवति । व्यतिरेके चान्वयगतिः। ततत्रिरूपं लिङ्ग प्रकाश्यमभिन्नम् । न च यत्राभिधेयभेदस्तत्र सामर्थ्यगम्योऽप्यर्थो भिद्यते । यस्मात् पीना देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते, पीनो देवदत्तो रात्रौ भुङ्क्त इत्यनयोर्वाक्ययोरभिधेयभेदेऽपि गम्यमानमेकमेव 15 तद्वदिहाभिधेयभेदेऽपि गम्यमानं वस्त्वेकमेव ।"-न्यायवि० टी० ३. ७.
अ० २. प्रा० १. सू०७-८. पृ० ५०. परार्थानुमान में पक्ष का प्रयोग करने न करने का मतभेद है। नैयायिक प्रादि वैदिक परम्परा पक्ष का प्रयोग आवश्यक समझती है। बौद्ध परम्परा में न्यायप्रवेश में तो पक्षवचन साधनवाक्याङ्ग रूप से माना ही है पर उत्तरवर्ती धर्मकीर्ति ने प्रतिज्ञा को व्यर्थ ही बतलाया है और कहा है कि उसका प्रयोग साधन- 20 वाक्य का प्रङ्ग नहीं है। जैन परम्परा पक्ष के प्रयोग की आवश्यकता का समर्थन करती है। सिद्धसेन ने खुद ही पक्ष के प्रयोग का विधान किया है (तत् प्रयोगोऽत्र कर्त्तव्य:-न्याया० १४), जो सम्भवतः धर्मकीर्ति के प्रतिज्ञानिषेध के खण्डन के लिये है। उसी का समर्थन करते हुए पिछले जैन तार्किकों ने बौद्ध मन्तव्य के विरुद्ध अपनी दलीलें दी हैं । परीक्षामुख, प्रमाणनयतत्त्वालोक और उनकी व्याख्याओं की अपेक्षा प्रा० हेमचन्द्र की कृति की इस 25 सम्बन्ध में विशेषता यह है कि उन्होंने वाचस्पति मिश्र कृत ( तात्पर्य० टी० पृ० २७४ ) पक्षसमर्थनप्रकार अक्षरश: इस जगह अवतारित किया है, अन्तर है तो इतना ही कि वाचस्पति मिश्रने ब्राह्मणपरम्परासुलभ ब्राह्मण गुरु-शिष्य का उदाहरण दिया है जब कि प्रा. हेमचन्द्र
१ "त्रिरूपलिङ्गाख्यानं परार्थानुमानम् ।"-न्यायबि० ३. १. । “अथवा तस्यैव साधनस्य यन्नाङ्ग प्रतिज्ञोपनयनिगमनादि......"-वादन्याय पृ०६१1
प्रात
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