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पृ० ४५. पं० २०.]
भाषाटिप्पयानि ।
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विरुद्ध का समावेश करके कुल प्रत्यक्ष, अनुमान, स्ववचन और प्रतीतिविरुद्ध रूप से चार बाधित पक्ष बतलाये हैं । जान पड़ता है, बौद्ध परम्परागत आगमप्रामाण्य अस्वीकार का विचार करके धर्मकीर्त्ति ने आगमविरुद्ध को हटा दिया है । पर साथ ही प्रतीतिविरुद्ध को बढ़ाया । माणिक्यनन्दी ने परी० ६.१५ ) इस विषय में न्यायबिन्दु का नहीं पर न्यायप्रवेश का अनुसरण करके उसी के पाँच बाधित पक्ष मान लिये जिनको देवसूरि ने भी मान लिया । अलबत्ता देवसूरि ने ( प्रमाणन० ६.४० ) माणिक्यनन्दी का और न्यायप्रवेश का अनुसरण करते हुए भी प्रदिपद रख दिया और अपनी व्याख्या रत्नाकर में स्मरणविरुद्ध, तर्कविरुद्ध रूप से अन्य बाधित पक्षों को भी दिखाया । आ० हेमचन्द्र ने न्यायबिन्दु का प्रतीतिविरुद्ध ले लिया, बाकी के पाँच न्यायप्रवेश और परीक्षामुख के लेकर कुल छः बाधित पक्षों को सूत्रबद्ध किया है । माठर (सांख्यका० ५ ) जो संभवत: न्यायप्रवेश से पुराने हैं उन्होंने 10 पक्षाभासों की नव संख्या मात्र का निर्देश किया है, उदाहरण नहीं दिये । न्यायप्रवेश सोदाहरण नव पक्षाभास निर्दिष्ट हैं ।
३ - श्रा० हेमचन्द्र ने साध्यधर्मविशिष्ट धर्मी को और साध्यधर्म मात्र को पक्ष कहकर उसके दो प्रकार बतलाये हैं, जो उनके पूर्ववर्ती माणिक्यनन्दी ( ३.२५ - २६, ३२ ) और देवसूरि ने (३.१६-१८ ) भी बतलाये हैं । धर्मकीर्त्ति ने सूत्र तो एक ही आकार निर्दिष्ट किया 15 है पर उसकी व्याख्या में धर्मोत्तर ने (२.८) केवल धर्मी, केवल धर्म और धर्मधर्मिसमुदाय रूप से पक्ष के तीन आकार बतलाये हैं। साथ ही उस प्रत्येक आकार का उपयोग किस किस समय होता है यह भी बतलाया है जो कि अपूर्व है । वात्स्यायन ने ( न्यायभा० १.१.३६ ) धर्मfafe धर्मी और धर्मिविशिष्ट धर्म रूप से पक्ष के दो आकारों का निर्देश किया है । पर प्रकार के उपयोगों का वर्णन धर्मोत्तर की उस व्याख्या के अलावा अन्यत्र पूर्व मन्थों में 20 नहीं देखा जाता। माणिक्यनन्दी ने इस धर्मोत्तरीय वस्तु को सूत्र में ही अपना लिया जिसका देवसूरि ने भी सूत्र द्वारा ही अनुकरण किया । आ० हेमचन्द्र ने उसका अनुकरण ता किया पर उसे सूत्रबद्ध न कर वृत्ति में ही कह दिया ।
४ - इतर सभी जैन तार्किकों की तरह प्रा० हेमचन्द्र ने भी प्रमाणसिद्ध, विकल्पसिद्ध और उभयसिद्ध रूप से पक्ष के तीन प्रकार बतलाये हैं। प्रमाणसिद्ध पक्ष मानने के वारे 25 में तो किसी का मतभेद है ही नहीं, पर विकल्पसिद्ध और उभयसिद्ध पक्ष मानने में मतभेद है। विकल्पसिद्ध और प्रमाण-विकल्पसिद्ध पक्ष के विरुद्ध, जहाँ तक मालूम है, सबसे पहिले प्रश्न उठानेवाले धर्मकीर्त्ति ही हैं। यह अभी निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता कि धर्मकीर्ति का वह आक्षेप मीमांसकों के ऊपर रहा या जैनों के ऊपर या दोनों के ऊपर । फिर भी इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि धर्मकीर्त्ति के 30 उस आक्षेप का सविस्तर जवाब जैन तर्कप्रन्थों में ही देखा जाता है। जवाब की जैन प्रक्रिया में सभी ने धर्मकीर्त्ति के उस प्रक्षेपीय पद्य ( प्रमाणवा० १. १६२ ) का उद्धृत भी किया है ।
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