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________________ १० ४२. पं० १.] भाषाटिप्पणानि । किसी नये विचार का जैनपरम्परा में संग्रहीकरणमात्र है। हम देखते हैं कि प्रा० हेमचन्द्र ने बौद्धसम्मत रूप्य का पूर्वपक्ष रखते समय जो विस्तृत अवतरण न्यायविन्दु की धर्मोत्तरीय वृत्ति में से अक्षरशः लिया है वह अन्य किसी पूर्ववर्ती जैन तर्कग्रन्थ में नहीं है। यद्यपि वह विचार बौद्धतार्किककृत है तथापि जैन तर्कशास्त्र के अभ्यासियों के वास्ते चाहे पूर्वपक्ष रूप से भी वह विचार खास ज्ञातव्य है। ऊपर जिस 'अन्यथानुपपनत्व' कारिका का उल्लेख किया है वह निःसन्देह तर्कसिद्ध होने के कारण सर्वत्र जैनपरम्परा में प्रतिष्ठित हो गई है। यहाँ तक कि उसी कारिका का अनुकरण करके विद्यानन्द ने थोड़े हेर-फेर के साथ पाश्चरूप्यखण्डन विषयक भी कारिका बना डाली है-प्रमाण ५० पृ. ७२ । इस कारिका की प्रतिष्ठा तर्कबल पर और तर्कक्षेत्र में ही रहनी चाहिए थी पर इसके प्रभाव के कायल अतार्किक भक्तों ने इसकी प्रतिष्ठा मन- 10 गढन्त ढङ्ग से बढ़ाई। और यहाँ तक वह बढ़ी कि खुद तर्कग्रन्थलेखक प्राचार्य भी उस कल्पित ढङ्ग के शिकार बने। किसी ने कहा कि उस कारिका के कर्ता और दाता मूल में सीमन्धरस्वामी नामक तीर्थकर हैं। किसी ने कहा कि सीमन्धरस्वामी से पद्मावती नामक देवता इस कारिका को लाई और पात्रकेसरी स्वामी को उसने वह कारिका दो। इस तरह किसी भी तार्किक मनुष्य के मुख में से निकलने की ऐकान्तिक योग्यता रखनेवाली इस 15 कारिका को सीमन्धरस्वामी के मुख में से अन्धभक्ति के कारण जन्म लेना पड़ासम्मतिटी० पृ० ५६६ (७)। प्रस्तु। जो कुछ हो आ० हेमचन्द्र भी उस कारिका का उपयोग करते हैं। इतना तो अवश्य जान पड़ता है कि इस कारिका के सम्भवत: उद्भावक पात्रस्वामी दिगम्बर परम्परा के ही हैं, क्योकि भक्तिपूर्ण उन मनगढन्त कल्पनाओं की सृष्टि केवल दिगम्बरीय परम्परा तक ही सीमित है। 20 पृ० ३६. पं० १७. 'तथाहि-अनुमेये-तुलना-न्यायबि० टी० २ ५-७ । पृ०.४१. पं०. १७. 'अथैवंविध:'-तुलना-प्रमेयर० ३. १६ । पृ. ४२. पं० १. 'स्वभाव'-जैन तर्कपरम्परा में हेतु के प्रकारों का वर्णन तो प्रकलङ्क के ग्रन्थों (प्रमाणसं० पृ० ६७-६८ ) में देखा जाता है पर उनका विधि या निषेधसाधक रूप से स्पष्ट वर्गीकरण हम माणिक्यनन्दी, विद्यानन्द प्रादि के ग्रन्थों में ही पाते हैं। 25 माणिक्यनन्दी, विद्यानन्द, देवसूरि और प्रा. हेमचन्द्र इन चार का किया हुमा ही वह वर्गीकरण ध्यान देने योग्य है। हेतुप्रकारों के जैनप्रन्थगत वर्गीकरण मुख्यतया वैशेषिक सूत्र और धर्मकीर्ति के न्यायबिन्दु पर अवलम्बित हैं। वैशेषिकसूत्र (६.२.१) में कार्य, कारण, संयोगी, समवायो और विरोधी रूप से पञ्चविध लिङ्ग का स्पष्ट निर्देश है । न्यायबिन्दु (२.१२) में स्वभाव, कार्य और अनुपलम्भ रूप से त्रिविध लिङ्ग का वर्णन है तथा अनुपलब्धि के ग्यारह 30 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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