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४० ३८. पं० ३.]
भाषाटिप्पणानि। हेमचन्द्र ने पटीत उस चर्चा को अक्षरश: लेकर प्रस्तुत सूत्र और उसकी. वृत्ति में व्यवस्थित कर दिया है। . अर्चट के सामने प्रश्न था कि व्याप्ति एक प्रकार का.सम्बन्ध है, जो संयोग की तरह द्विष्ठ ही है फिर जैसे. एक ही संयोग के दो सम्बन्धी 'क' और 'ख' अनियतरूप से अनुयोगीप्रतियोगी हो सकते हैं वैसे एक ही व्याप्तिसम्बन्ध के दो सम्बन्धी हेतु और साध्य अनि. यतरूप से हेतुसाध्य क्यों न हों अर्थात् उनमें से अमुक ही गमक और अमुक ही गम्य ऐसा नियम.क्यो ?। इस प्रश्न के प्राचार्योपनामक किसी तार्किक की ओर से उठाये जाने का मर्चट ने उल्लेख किया है। - इसका जवाब अर्चट ने, व्याप्ति को संयोग की तरह एकरूप सम्बन्ध नहीं पर व्यापकधर्म और क्याप्यधर्मरूप से विभिन्न स्वरूप बतलाकर, दिया है और कहा है कि अपनी विशिष्ट व्याप्ति के कारण व्याप्य ही गमक होता है तथा अपनी विशिष्ट 10 ज्याप्ति के कारण व्यापक ही गम्य होता है। गम्यगमकभाव सर्वत्र अनियत नहीं है जैसे आधाराधेयभाव।
उस पुराने समय में हेतु-साज्य में अनियतरूप से गम्यगमकभाव की भापति को टालने के वास्ते अर्चट जैसे तार्किकों ने द्विविध व्याप्ति की कल्पना की पर न्यायशास्त्र के विकास के साथ ही इस आपत्ति का निराकरण हम दूसरे और विशेषयोग्य प्रकार से देखते 16 हैं। नव्यन्याय के सूत्रधार गङ्गेश ने चिन्तामणि में पूर्वपक्षीय और सिद्धान्तरूप से अनेकविध व्याप्तियों का निरूपण किया है-चिन्ता० गादा० पृ० १४१-३६० । पूर्वपक्षीय व्याप्तियों में अव्यभिचरितत्व का परिष्कार? है जो वस्तुत: अविनाभाव या अर्चटोक्त व्याप्यधर्मरूप है। सिद्धान्तब्याप्ति में जो व्यापकत्व का परिष्कारांशर है वही अर्चटोक्त व्यापकधर्मरूप व्याप्ति है। अर्थात् अर्चट ने जिस व्यापकधर्मरूप व्याप्ति को गमकत्वानियामक कहा है उसे गङ्गेश 20 व्याप्ति ही नहीं कहते, वे उसे व्यापकत्व मात्र कहते हैं और तथाविध व्यापक के सामानाधिकरण्य को ही व्याप्ति कहते हैं३ । गङ्गश का यह निरूपण विशेष सूक्ष्म है। गङ्गेश जैसे तार्किकों के अव्यभिचरितत्व, व्यापकत्व प्रादि विषयक निरूपण प्रा० हेमचन्द्र की दृष्टि में पाये होते तो उनका भी उपयोग प्रस्तुत प्रकरण में अवश्य देखा जाता।
व्याप्ति, प्रविनाभाव, नियतसाहचर्य ये पर्यायशब्द तर्कशास्त्रों में प्रसिद्ध हैं। · अविना- 25 भाव का रूप दिखाकर जो व्याप्ति का स्वरूप कहा जाता है वह तो माणिक्यनन्दी (परी० ३. १७, १८) आदि सभी जैनतार्किकों के ग्रन्थों में देखा जाता है पर अर्चटोक्त नये विचार का संग्रह प्रा० हेमचन्द्र के सिवाय किसी अन्य जैन तार्किक के ग्रन्थ में देखने में नहीं आया।
१ "न तावदव्यभिचरितत्वं तद्धि न साध्याभाववदवृत्तित्वम्, साध्यवभिन्नसाध्याभाववदवृत्तित्व...... साध्यवदन्यावृत्तित्वं वा।"-चिन्ता० गादा० पृ०१४१।
२ "प्रतियोग्यसमानाधिकरणयत्समानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नं यन्न भवति". चिन्ता० गादा० पृ० ३६१ ।
३. "तेन समं तस्य सामानाधिकरण्यं व्यातिः॥"-चिन्ता० गादा० पृ०३६१।
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