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________________ पृ० २८. पं० ३.] भाषाटिप्पयानि । ६५ नयवाद ये दोनों एकमात्र अनेकान्त दृष्टि के फलस्वरूप भिन्न-भिन्न बाद हैं जो शैली, शब्दरचना, पृथक्करण आदि में भिन्न होने पर भी अनेकान्तसूचक रूप से अभिन्न ही हैं । जैन शास्त्रों की व्याख्या का निक्षेपात्मक प्रकार और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदिवाला पृथक्करण प्रकार भी अनेकान्त दृष्टि का ही द्योतक है । अनेकान्तवाद यह व्यापक शब्द है, जिसमें स्याद्वाद, नयवाद, निक्षेपपद्धति आदि सबका समावेश हो जाता है । यद्यपि 5 इस समय अनेकान्तवाद और स्याद्वाद दोनों शब्द पर्यायरूप से व्यवहृत देखे जाते हैं तथापि स्याद्वाद असल में अनेकान्तवाद का एक विशेष अंशमात्र है । 15 पृ० २८. पं० ३. 'विरोधादि'-' १ - अन्य वादियों के द्वारा अनेकान्त के ऊपर दिये गये दोषों का परिहार जैन आचार्यों ने किया है । इस परिहार में परिहृत दोषों की संख्या के विषय में तथा स्वरूप के विषय में नाना परम्पराएँ हैं। भट्टारक अकलङ्क ने संशय, विरोध, 10 वैयधिकरण्य, उभयदोषप्रसङ्ग, अनवस्था, सङ्कर, अभाव इन दोषों का परिगणन किया है । आचार्य हरिभद्र ने ( शास्त्रवा० स्वो० का० ५१० -५१८ ) संख्या का निर्देश बिना किये ही विरोध, अनवस्था, उभय, संशय इन दोषों का स्पष्ट निर्देश किया है और आदि शब्द से अन्य दोषों का सूचन भी किया है । विद्यानन्द ने ( अष्टस० पृ० २२७ ) विरोध, वैयधिकरण्य, संशय, व्यतिकर, सङ्कर, अनवस्था, अप्रतिपत्ति और प्रभाव इस तरह स्पष्ट ही नामपूर्वक आठ दोष गिनाये हैं । प्रभाचन्द्र ने ( प्रमेयक० पृ० १५६ ) आठ दोष गिनाये हैं, पर दोनों की दी हुई नामावली में थोड़ा सा अन्तर है क्योंकि विद्यानन्द 'उभय' दोष का उल्लेख नहीं करते पर अप्रतिपत्ति को दोष कहकर आठ संख्या की पूर्ति करते हैं जब कि प्रभाचन्द्र 'उभय' दोष को गिनाकर ही आठ दोष की संख्या पूर्ण करते हैं और अप्रतिपत्ति को अलग दोष नहीं गिनते । इस तरह दिगम्बरीय ग्रन्थों में संख्या आठ होने पर भी उसकी दो परम्पराएँ हुई । अभयदेव ने 'उभय' दोष का उल्लेख किया है ( सन्मतिटी० पृ० ४५२ ) पर उनकी दोषसंख्या सात की है, जो वादी देवसूरि को भी अभिमत है फिर भी वादी देवसूरि ( स्याद्वादर० पृ० ७३८ ) और अभयदेव दोनों की सात संख्या की पूर्ति एक सी नहीं है क्योंकि अभयदेव की गणना में 'प्रभाव' दोष है पर व्यतिकर नहीं जब कि वादी देवसूरि की गणना में 'व्यतिकर' है, 'प्रभाव' नहीं । इस तरह श्वेताम्बरीय प्रन्थों में सात संख्या की 25 दो परम्पराएँ हुई । 20 1 प्राचार्य हेमचन्द्र ने जिन आठ दोषों का परिहार किया है वे ठीक विद्यानन्दसम्मत ही माठ हैं। हेमचन्द्र के द्वारा आठ दोषों का परिहार श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में प्रथम दाखिल हुआ जान पड़ता है जिसका अनुकरण उन्हीं के अनुगामी मल्लिषेण सूरि ने स्याद्वादमञ्जरी (का० २४ ) में किया है । अनेकान्तवाद पर जब से दार्शनिक क्षेत्र में आक्षेप होने लगे तब 30 से प्राक्षेपकों के द्वारा दिये गये दोषों की संख्या भी एक-सी नहीं रही है, वह क्रमश: वृद्धिङ्गत जान पड़ती है। उन दोषों के निवारक जैन आचार्यों के प्रन्थों में भी परिहृतं दोषों की संख्या का उत्तरोत्तर विकास ही हुआ है । यहाँ तक कि अन्तिम जैन तार्किक उपाध्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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