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________________ २४ प्रमाणमीमांसायाः जैन परम्परा' में 'अक्ष' शब्द का 'आत्मा' अर्थ मानकर व्युत्पत्ति की गई है। तदनुसार उसमें इन्द्रियनिरपेक्ष केवल आत्माश्रित माने जानेवाले ज्ञानों को ही प्रत्यक्ष पद का मुख्य अर्थ माना है और इन्द्रियाश्रित ज्ञान को वस्तुतः परोक्ष ही माना है । उसमें अक्षपद का इन्द्रिय अर्थ लेकर भी व्युत्पत्ति का आश्रयण किया है पर वह अन्यदर्शन प्रसिद्ध 5 परम्परा तथा लोकव्यवहार के संग्रह की दृष्टि से । अतएव जैन परम्परा के अनुसार इन्द्रि याश्रित ज्ञान में प्रत्यक्ष पद का प्रयोग मुख्य नहीं पर गौय है । [ पृ० ७. पं० १८ इन्द्रियसापेक्ष ज्ञान को मुख्य प्रत्यक्ष माननेवाले हों या आत्ममात्र सापेक्ष को पर वे सभी प्रत्यक्ष को साक्षात्कारात्मक ही मानते व कहते हैं। I पृ० ७. 10 न्यायभा० १.१ ३ । पृ० ७. , पं० २१. 'चकारः ' - तुलना - " चकारः प्रत्यक्षानुमानयोस्तुल्यबलत्वं समुञ्चिनाति” न्यायवि० टी० १. ३. न्याया० सि० टी० पृ० १६ । पं० १. 'अक्षं प्रतिगतम् ' - तुलना - " अक्षस्याऽक्षस्य प्रतिविषयं वृत्तिः प्रत्यक्षम्"" प्रत्यक्षमिति । प्रतिगतमाश्रितमक्षम् । " - न्यायचि० टी० १.३ । पृ० ७. पं० २३. 'ज्येष्ठतेति - प्रमाणों में ज्येष्ठत्व - ज्येष्ठत्व के विषय में तीन परम्पराएँ हैं । न्याय और सांख्य परम्परा में प्रत्यक्ष का ज्येष्ठत्व और अनुमानादि का उसकी अपेक्षा 15 ज्येष्ठत्व स्थापित किया है। पूर्व - उत्तरमीमांसार में अपौरुषेय आगमवाद होने से प्रत्यक्ष की अपेक्षा भी श्रागम का ज्येष्ठत्व स्वीकार किया गया है । बौद्ध परम्परा में प्रत्यक्ष-अनुमान दोनों का समबलत्व बतलाया है । जैन परम्परा में दो पक्ष देखे जाते हैं । अकलङ्क और तदनुगामी विद्यानन्द ने प्रत्यक्ष का ही ज्येष्ठत्व न्यायपरम्परा की तरह माना और स्थापित किया है, जब कि सभी Jain Education International १ " अणोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा, तमेव प्राप्तक्षयोपशमं प्रक्षीणावरण वा प्रतिनियतं वा प्रत्यक्षम् । " - सर्वार्थ ० १. १२ । “जीवो अक्खो अत्थव्वावणभोयणगुण णिश्रो जेण । तं पई व नाण' जं पच्चक्खं तयं तिविहं ।" - विशेषा० भा० गा० ८६ । “तथा च भगवान् भद्रबाहुः - जीवो अक्खो तं पई जं वह तं तु होइ पच्चक्खं । परत्रो पुरा अक्खस्स वट्टन्तं होइ पारोक्ख ||" - न्याया० टि० पृ० १५ । २ " श्रादौ प्रत्यक्षग्रहण प्राधान्यात्तत्र किं शब्दस्यादावुपदेशो भवतु श्राहोस्वित् प्रत्यक्षस्येति १ । प्रत्यक्षस्येति युक्तम् । कि ं कारणम् ? । सर्वप्रमाणानां प्रत्यक्षपूर्वकत्वात् इति । " - न्यायषा० १. १. ३ । साङ्ख्यत० का० ५ । न्यायम० पृ० ६५, १०६ । ३" न च ज्येष्ठप्रमाणप्रत्यक्षविरोधादाम्नायस्यैव तदपेक्षस्याप्रामाण्यमुपचरितार्थत्वं चेति युक्तम् । तस्यापौरुषेयतया निरस्तसमस्त देाषाशङ्कस्य, बोधकतया स्वतः सिद्धप्रमाणभावस्य स्वकार्ये प्रमितावनपेक्षत्वात्। " - भामती पृ० ६ । ४ “अर्थसंवादकत्वे च समाने ज्येष्ठताऽस्य का ? । तदभावे तु नैव स्यात् प्रमाणमनुमादिकम् ||”तत्त्वसं० का० ४६० । न्यायबि० टी० १.३ । ५ श्रष्टश० अष्टस० पृ० ८० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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