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प्रमाणमीमांसायाः
[पृ० ७. पं०७जिनभद्र क्षमाश्रमण ने अपने प्रति विस्तृत भाष्य में द्विविध प्रमाण विभाग में आगमिक पञ्च ज्ञानविभाग का तर्कपुरःसर समावेश बतलाया और प्रार्यरक्षितस्थापित तथा नन्दोकार द्वारा स्वीकृत इन्द्रियजन्य-नाइन्द्रियजन्य रूप से द्विविध प्रत्यक्ष के वर्णन में आनेवाले उस विरोध का सांव्यवहारिक और पारमार्थिक प्रत्यक्ष ऐसा नाम देकर सबसे पहले परिहार 5 किया-"इंदियमणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खं ।”–विशेषा० भा० गा० ६५-जिसे प्रतिवादी तार्किक जैन तार्किकों के सामने उपस्थित किया करते थे। विरोध इस तरह बतलाया जाता था कि जब जैनदर्शन अक्ष-आत्माश्रित ज्ञान को ही प्रत्यक्ष कहता है तब उसकी प्रक्रिया में इन्द्रियाश्रित ज्ञान का प्रत्यक्षरूप से स्थान पाना विरुद्ध है। क्षमाश्रमणजी ने यह सब कुछ
किया फिर भी उन्होंने कहीं यह नहीं बतलाया कि जैन प्रक्रिया परोक्ष प्रमाण के इतने भेद 10 मानती है और वे अमुक हैं।
इस तरह अभी तक जैन परंपरा में आगमिक ज्ञानचर्चा के साथ ही साथ, पर कुछ प्रधानता से प्रमाण चर्चा हो रही थी, फिर भी जैन तार्किकों के सामने दूसरे प्रतिवादियों की ओर से यह प्रश्न बारबार आता ही था कि जैन प्रक्रिया अगर अनुमान, आगम आदि
दर्शनान्तर-प्रसिद्ध प्रमाणों को परोक्ष प्रमाणरूप से स्वीकार करती है तो उसे यह स्पष्ट करना 16 आवश्यक है कि वह परोक्ष प्रमाण के कितने भेद मानती है, और हरएक भेद का सुनिश्चित लक्षण क्या है ?।
जहाँ तक देखा है उसके आधार से नि:संदेह कहा जा सकता है कि उक्त प्रश्न का जवाब सबसे पहिले भट्टारक अकलङ्क ने दिया है। और वह बहुत ही स्पष्ट तथा सुनिश्चित
है। अकलङ्क ने अपनी लघोयस्त्रयो? में बतलाया कि परोक्ष प्रमाण के अनुमान, प्रत्यभिज्ञान, 20 स्मरण, तर्क और आगम ऐसे पाँच भेद हैं। उन्होंने इन भेदों का लक्षण भी स्पष्ट बाँध दिया।
हम देखते हैं कि अकलङ्क के इस स्पष्टीकरण ने जैन प्रक्रिया में आगमिक और तार्किक ज्ञान चर्चा में बारबार खड़ी होनेवाली सब समस्याओं को सुलझा दिया। इसका फल यह हुआ कि अकलङ्क के उत्तरवर्ती दिगम्बर श्वेताम्बर सभी तार्किक उसी अकलङ्कदर्शित रास्ते पर ही
चलने लगे। और उन्हीं के शब्दों को एक या दूसरे रूप से लेकर यत्र तत्र विकसित कर 25 अपने अपने छोटे और बृहत्काय ग्रन्थों को लिखने लग गये। जैन तार्किकमूर्धन्य यशो
विजय ने भी उसी मार्ग का अवलम्बन किया है। यहाँ एक बात जान लेनी चाहिए कि जिन अकलङ्क ने परोक्ष प्रमाण के भेद और उनके लक्षणों के द्वारा दर्शनान्तरप्रसिद्ध अनुमान, अर्थापत्ति, उपमान आदि सब प्रमाणों का जैन प्रक्रियानुसारी निरूपण किया है वही अकलङ्क
राजवार्तिककार भी हैं, पर उन्होंने अपने वार्त्तिक में दर्शनान्तरप्रसिद्ध उन प्रमाणों का 30 समावेश लघीयत्रयी के अनुसार नहीं पर तत्त्वार्थभाष्य और सर्वार्थसिद्धि के अनुसार किया
है ऐसा कहना होगा। फिर भी उक्त भाष्य और सिद्धि की अपेक्षा अकलङ्क ने अपना
१ "ज्ञानमाद्य मतिस्संज्ञा चिन्ता चाभिनिबोधनम् । प्राङ्नामयोजनाच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात् ।"लघी० ३.१. स्ववि० ३.१। २"सूरिणा-अकलङ्कन वार्तिककारेण"-सिद्धिवि० टी० पृ० २५४ B.
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