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________________ प्रमाणमीमांसायोः __ मीमांसक की प्रभाकरीय और कुमारिलीय दोनों परम्पराओं में भी धारावाहिक ज्ञानों का प्रामाण्य ही स्वीकार किया है। पर दोनों ने उसका समर्थन भिन्न-भिन्न प्रकार से किया है। प्रभाकरानुगामी शालिकनाथ १ 'कालकला' का भान बिना माने ही 'अनुभूति होने मात्र से उन्हें प्रमाण कहते हैं, जिस पर न्याय-वैशेषिक परम्परा की छाप स्पष्ट है। कुमारिलानुगामी पार्थसारथिरे, 'सूक्ष्मकालकला' का भान मानकर ही उनमें प्रामाण्य का उपपादन करते हैं क्योंकि कुमारिलपरम्परा में प्रमाणलक्षण में 'अपूर्व' पद होने से ऐसी कल्पना बिना किये 'धारावाहिक' ज्ञानों के प्रामाण्य का समर्थन किया नहीं जा सकता। इस पर बौद्ध और जैन कल्पना की छाप जान पड़ती है। बौद्ध-परम्परा में यद्यपि धर्मोत्तर ने स्पष्टतया 'धारावाहिक' का उल्लेख करके तो कुछ 10 नहीं कहा है, फिर भी उसके सामान्य कथन से उसका झुकाव 'धारावाहिक' को अप्रमाण मानने का ही जान पड़ता है। हेतुबिन्दु की टीका में अर्चट ने 'धारावाहिक' के विषय में अपना मन्तव्य प्रसंगवश स्पष्ट बतलाया है। उसने योगिगत 'धारावाहिक' ज्ञानों को तो 'सूक्ष्म कालकला' का भान मानकर प्रमाण कहा है। पर साधारण प्रमाताओं के धारा वाहिकों को सूक्ष्मकालभेदग्राहक न होने से अप्रमाण ही कहा है। इस तरह बौद्ध पर. 15 म्परा में प्रमाता के भेद से 'धारावाहिक' के प्रामाण्य-अप्रामाण्य का स्वीकार है। १ "धारावाहिकेषु तात्तरविज्ञानानि स्मृतिप्रमोषादविशिष्टानि कथं प्रमाणानि । तत्राह-अन्योन्यनिरपेक्षास्तु धारावाहिकबुद्धयः। व्याप्रियमाणे हि पूर्वविज्ञानकारणकलाप उत्तरेषामप्युत्पत्तिरिति न प्रतीतित उत्पत्तितो वा धारावाहिकविज्ञानानि परस्परस्यातिशेरत इति युक्ता सर्वेषामपि प्रमाणता ।"-प्रकरणप० पृ०४२-४३. बृहतीप० पृ० १०३. २ "नन्वेवं धारावाहिकेषूत्तरेषां पूर्वगृहीतार्थविषयकत्वादप्रामाण्यं स्यात् । तस्मात् 'अनुभूतिः प्रमाणम्' इति प्रमाणलक्षणम् । .. तस्मात् यथार्थमगृहीतग्राहि ज्ञानं प्रमाणमिति वक्तव्यम् । धारावाहिकेष्वप्युत्तरोत्तरेषां कालान्तरसम्बन्धस्याग्रहीतस्य ग्रहणाद् युक्तं प्रामाण्यम् । सन्नपि कालभेदोऽतिसूक्ष्मत्वान्न परामृष्यत इति चेत् । अहो सूक्ष्मदर्शी देवानांप्रियः ! यो हि समानविषयया विज्ञानधारया चिरमवस्थायोपरतः सेोऽनन्तरक्षणसम्बन्धितयाथै स्मरति । तथाहि-किमत्र घटोऽवस्थित इति पृष्टः कथयति-अस्मिन् क्षणे मयोपलब्ध इति। तथा प्रातरारभ्यैतावत्कालं मयोपलब्ध इति । कालभेदे त्वगृहीते कथमेवं वदेत । तस्मादस्ति कालभेदस्य परामर्शः। तदाधिक्याच सिद्धमुत्तरेषां प्रामाण्यम् ।"-शास्त्रदी० पृ० १२४-१२६. ३ "अत एव अनधिगतविषयं प्रमाणम् । येनैव हि ज्ञानेन प्रथममधिगतोऽर्थः तेनैव प्रवर्तितः पुरुषः प्रापितश्चार्थः तत्रैवार्थे किमन्येन ज्ञानेन अधिक कार्यम । ततोऽधिगतविषयमप्रमाणम् ।"-न्यायबिक टी०. पृ० ३. ४ “यदैकस्मिन्नेव नीलादिवस्तुनि धारावाहीनीन्द्रियज्ञानान्युत्पद्यन्ते तदा पूर्वेणाभिन्नयोगक्षेमत्वात् उत्तरेषामिन्द्रियज्ञानानामप्रामाण्यप्रसङ्गः । न चैवम , अतोऽनेकान्त इति प्रमाणसंप्लववादी दर्शयन्नाह-पूर्वप्रत्यक्षक्षणेन इत्यादि । एतत् परिहरति-तद् यदि प्रतिक्षणं क्षणविवेकदर्शिनोऽधिकृत्योच्यते तदा भिन्नोपयोगितया पृथक प्रामाण्यात् नानेकान्तः। अथ सर्वपदार्थेष्वेकत्वाध्यवसायिनः सांव्यवहारिकान् पुरुषानभिप्रेत्योच्यते तदा सकलमेव नीलसन्तानमेकमर्थ स्थिररूपं तत्साध्यां चार्थक्रियामेकात्मिकामध्यवस्यन्तीति प्रामाण्यमप्युत्तरेषामनिष्टमेवेति कुतोऽनेकान्तः ?।"-हेतु० टी० लि०. पृ० ३६B-४१A. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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