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________________ पृ. २. पं० २०.] . भाषाटिप्पणानि । पृ. २५० २०. सम्यगर्थ'-प्रमाणसामान्यलक्षण की तार्किक परम्परा के उपलब्ध इतिहास में कणाद का स्थान प्रथम है। उन्होंने "प्रदुष्टं विद्या" (६. २. १२) कहकर प्रमाणसामान्य का लक्षण कारणशुद्धिमूलक सूचित किया है। अक्षपाद के सूत्रों में लक्षणक्रम में प्रमाणसामान्यलक्षण के अभाव की त्रुटि को वात्स्यायन ने 'प्रमाण' शब्द के निर्वचन द्वारा पूरा किया। उस निर्वचन में उन्होंने कणाद की तरह कारणशुद्धि की । तरफ ध्यान नहीं रक्खा पर मात्र उपलब्धिरूप फल की ओर नज़र रखकर "उपलब्धिहेतुत्व" को प्रमाणसामान्य का लक्षण बतलाया है । वात्स्यायन के इस निर्वचनमूलक लक्षण में आनेवाले दोषों का परिहार करते हुए वाचस्पति मिश्रर ने 'अर्थ' पद का सम्बन्ध जोड़कर और 'उपलब्धि' पद को ज्ञानसामान्यबोधक नहीं पर प्रमाणरूपज्ञानविशेषबोधक मानकर प्रमाणसामान्य के लक्षण को परिपूर्ण बनाया, जिसे उदयनाचार्य ने कुसुमाञ्जलि में 'गौतम- 10 नयसम्मत' कहकर अपनी भाषा में परिपूर्ण रूप से मान्य रक्खा जो पिछले सभी न्याय. वैशेषिक शास्त्रों में समानरूप से मान्य है। इस न्याय-वैशेषिक की परम्परा के अनुसार प्रमाणसामान्यलक्षण में मुख्यतया तीन बातें ध्यान देने योग्य हैं १-कारणदोष के निवारण द्वारा कारणशुद्धि की सूचना । २-विषयबोधक अर्थ पद का लक्षण में प्रवेश । ३-लक्षण में स्व-परप्रकाशत्व की चर्चा का अभाव तथा विषय की अपूर्वता-अनधिगतता के निर्देश का अभाव । यद्यपि प्रभाकर४ और उनके अनुगामी मीमांसक विद्वानों ने 'अनुभूति' मात्र को ही प्रमाणरूप से निर्दिष्ट किया है तथापि कुमारिल एवं उनकी परम्परावाले अन्य मीमांसकों ने न्याय-वैशेषिक तथा बौद्ध दोनों परम्पराओं का संग्राहक ऐसा प्रमाण का लक्षण रचा है; 20 जिसमें 'अदुष्टकारणारब्ध' विशेषण से कणादकथित कारणदोष का निवारण सूचित किया और 'निर्वाधत्व' तथा 'अपूर्वार्थत्व' विशेषण के द्वारा बौद्ध परम्परा का भी समावेश किया। . 15 ..१ "उपलब्धिसाधनानि प्रमाणानि इति समाख्यानिर्वचनसामर्थ्यात् बोद्धव्यं प्रमीयते अनेन इति करणार्थाभिधानो हि प्रमाणशब्दः"-न्यायभा० १. १. ३. २ “उपलब्धिमात्रस्य अर्थाव्यभिचारिणः स्मृतेरन्यस्य प्रमाशब्देन अभिधानात्"-तात्पर्य० पृ०२१. - ३ “यथार्थानुभवो मानमनपेक्षतयेष्यते ॥ मितिः सम्यक् परिच्छित्तिः तद्वत्ता च प्रमातृता। तदयोगव्यवच्छेदः प्रामाण्यं गौतमे मते ॥"-न्यायकु०४.१,५. ४ "अनुभूतिश्च नः प्रमाणम्"-बृहती १.१.५. ५ "औत्पत्तिकगिरा दोषः कारणस्य निवार्यते । अबाधोऽव्यतिरेकेण स्वतस्तेन प्रमाणता ॥ सर्वस्यानुपलब्धेऽर्थे प्रामाण्यं स्मृतिरन्यथा ॥''-श्लोकवा० औत्प० श्लो० १०, ११. "एतच्च विशेषणत्रयमुपाददानेन सूत्रकारेण कारणदोषबाधकज्ञानरहितम् अगृहीतग्राहि ज्ञानं प्रमाणम् इति प्रमाणलक्षण सूचितम्। -शानदी० पृ० १२३. "अनधिगतार्थगन्तृ प्रमाणम् इति भट्टमीमांसका बाहुः"-सि.चन्द्रो० पृ० २०. ६ "अज्ञातार्थज्ञापकं प्रमाणम् इति प्रमाणसामान्यलक्षणम् ।"-प्रमाणस० टी० पू०११. .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001069
Book TitlePramana Mimansa Tika Tippan
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorSukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1995
Total Pages340
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, Nay, & Praman
File Size24 MB
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