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पृ० २. पं० ६.1 __ भाषाटिप्पणानि ।
प्रा. हेमचन्द्र ने उपर्युक्त सभी परम्पराओं का उपयोग करके अपनो व्याख्या में 'प्रथ' शब्द को अधिकारार्थक, आनन्तर्यार्थक और मंगलप्रयोजनवाला बतलाया है। उनकी उपमा भी शब्दशः वही है जो वाचस्पति के उक्त ग्रन्थों में है।
'पृ० २. पं० ३. 'आयुष्म'-तुलना- “मङ्गलादीनि हि शास्त्राणि प्रथन्ते वीरपुरुषाणि च । भवन्ति, प्रायुष्मत्पुरुषाणि चाध्येतारश्च सिद्धार्था यथा स्युरिति”-पात. महा० १. १. १.... ।
पृ० २. पं० ४. 'परमेष्ठि'-जैन परम्परा में अर्हत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु ऐसे प्रास्मा के पांच विभाग लोकोत्तर विकास के अनुसार किये गये हैं, जो पंचपरमेष्ठी कहलाते हैं। इनका नमस्कार परम मंगल समझा जाता है
"एष पश्चनमस्कारः सर्वपापक्षयङ्करः। ।
मङ्गलानां च सर्वेषां प्रथमं भवति मङ्गलम् ॥" - पृ० २. पं० ५. 'प्रकर्षेणं-वात्स्यायन ने अपने न्यायभाष्य में ( १. १. ३.) 'प्रमाण शब्द को करणार्थक मानकर उसकी निरुक्ति के द्वारा 'प्रमाण' का लक्षण सूचित किया है। वाचस्पति मिश्र ने भी सांख्यकारिका की (तत्त्वकौ० का. ४) अपनी व्याख्या में 'प्रमाण' का लक्षण करने में उसी निर्वचनपद्धति का अवलम्बन किया है। प्रा० हेमचन्द्र भी 'प्रमाण' शब्द की उसी तरह निरुक्ति करते हैं। ऐसी ही निरुक्ति शब्दश: ‘परीक्षामुख' को व्याख्या 15 प्रमेयरत्नमाला ( १. १.) में देखी जाती है।
पृ० २. पं० ६. 'त्रयी हिं-उपलभ्य ग्रन्थों में सब से पहिले वात्स्यायनभाष्य' में ही शास्त्रप्रवृत्ति के त्रैविध्य की चर्चा है और तीनों विधाओं का स्वरूप भी बतलाया है। श्रीधर ने अपनी 'कंदलो'२ में उस प्राचीन वैविध्य के कथन का प्रतिवाद करके शास्त्रप्रवृत्ति को उद्देशलक्षणरूप से द्विविध स्थापित किया है और परीक्षा को अनियत कहकर उसे त्रैविध्य में से 20 कम किया है। श्रीधर ने नियतरूप से द्विविध शास्त्रप्रवृत्ति का और वात्स्यायन ने त्रिविध शास्त्रप्रवृत्ति का कथन किया इसका सबब स्पष्ट है। श्रीधर कणादसूत्रीय प्रशस्तपादभाष्य
१"त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिः-उद्देशो लक्षणं परीक्षा चेति। तत्र नामधेयेन पदार्थमात्रस्याभिधानं उद्देशः। तत्रोद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवच्छेदको धो लक्षणम् । लक्षितस्य यथालक्षणमुपपद्यते न वेति प्रमाणैरवधारण परीक्षा"-न्यायभा० १.१.२.
.२ "अनुद्दिष्टेषु पदार्थेषु न तेषां लक्षणानि प्रवर्तन्ते निर्विषयत्वात् । अलक्षितेषु च तत्त्वप्रतीत्यभावः कारणाभावात् । अतः पदार्थव्युत्पादनाय प्रवृत्तस्य शास्त्रस्योभयथा प्रवृत्तिः-उद्दशो लक्षण च, परीक्षायास्तु न नियमः। यत्राभिहिते लक्षणे प्रवादान्तरव्याक्षेपात् तत्वनिश्चयो न भवति तत्र परपक्षव्युदासार्थ परीक्षाविधिरधिक्रियते । यत्र तु लक्षणाभिधानसामर्थ्यादेव तत्त्वनिश्चयः स्यात् तत्रायं व्यर्थी नार्थ्यते । योऽपि हि त्रिविधां शास्त्रस्य प्रवृत्तिमिच्छति तस्यापि प्रयोजनादीनां नास्ति परीक्षा। तत् कस्य हेतोर्लक्षणमात्रादेव ते प्रतीयन्ते इति । एवं चेदर्थप्रतीत्यनुरोधात् शास्त्रस्य प्रवृत्तिर्न त्रिधैव । नामधेयेन पदार्थानामभिधानमुद्देशः । उद्दिष्टस्य स्वपरजातीयव्यावर्तको धर्मो लक्षणम् । लक्षितस्य यथालक्षण विचारः परीक्षा"कन्दली पू० २६.
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