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ते काकुत्स्थपृषत्कजर्जर (वि.) ४१८, २८० | त्वं साज्ञासु जगन्मातः (वि.) ५१९, ३२०. ते गच्छन्ति महापदं (अ.) ४७९, ३२४. |
[दे. श. *लो. ९७ ] [सुभा. 'लो. २५८७.] त्वमेव देव (वि.) २१३, १७९. ते दृष्टिमात्रपतिता (अ.) १८१, १५७. लमेवं सौन्दर्या स च (वि.) ४३४, २८४. तेनावरोधप्रमदासखेन (वि.) ३५०, २२४. | त्वयि निबद्धरतेः (अ.) २११, २०३. [र. वं. स. १६. लो. ७१]
[वि. अं. ४. लो. २९] तेऽन्यैर्वान्तं समश्नन्ति (अ ) ३०१, २३०. दक्षात्मजादयितवल्लभवेदिकानां (अ.) ते पान्तु वः पशुपतेर् (वि.) ३३, १४. ३४१, २४१. ते हिमालयमामन्त्र्य (अ.) २५९, २१७. दक्षिणो दक्षिणामाशां (वि) २३४, १८४.
[ कु. सं. स. ६. श्लो. ९४] ददो सरः (अ.) १६१, १४८. त्यज करिकलभ प्रेमबन्धं(अ.) ३९४, २६६ [कु. सं. स. ३. श्लो. ३७] त्रासाकुल: परिपतन्परितो (वि.) १४६, | ददृशाते जनस्तत्र (वि.) ६४, २१.
७६. [शि. व. स. ५. श्लो. २६] | ददृशुरिदेशस्थां (वि.) ४३८, २८६. त्वक तारवी निवसनं (अ.) ३५०, २४५. दन्तक्षतानि (अ.) १९६, १६७. त्वगुत्तरासङ्गवतीमधीतिनीम् (अ.) २१९, | दम्पत्योः शनकरपाङ्ग (अ) ९८, १८९. ___२०६. [कु. सं. स. ५. लो. १६]
[अ. श. लो. १९] त्वस्कटाक्षावलीलीला (अ.) १६४, १४९. | दर्पणे च परिभोगदर्शिनी (अ.) १२५, त्वत्सम्प्राप्तिविलोमितेन (वि.) १९७,१७३. १३० [कु. सं. स. ८. 'लो. ११]
[ ता. व. अं. ६ ] | दर्पः स्यादमृतेन चेदिह (वि.) ५९९, त्वदाज्ञया जगत्सर्वे (वि.) ५१६, ३२०. ४५३. [ र. अं. ३. *लो. ९३ ]
[दे. श. 'लो. ९४] दलत्कन्दलभाग्भूमिः (अ.) २१७, २०६. त्वदीयं मुखमालोक्य (अ.) १६६, १४९. | दलत्कुटजकुङ्मलः (वि.) २५५, १८८. त्वदुद्धतामयस्थान (अ.) ४८३, ३२७. दर्शादिक्कुटपर्यन्त (वि.) २३२. १८४. त्वद्विप्रयोगे किरणैस्तथो (वि.) ७०, २२. | दशरश्मिशतोपमद्युतिं (अ.)४३६, २९.६. स्वन्मुखं त्वन्मुखमिव (अ.) ५२४, ३४७. [र. वं. स. ८. लो. २९] एवं पादे शास्त्रसङ्गिन्यां (वि.) ४९९, ३१६. दातारो यदि (अ.) ४२७, २९२.
[दे. श. 'लो. ८०] | दान वित्ताहतं वाचः (अ.)६५४, ३९५. त्वं विनिजितमनोभवरूपः (वि) ५८०, | दानवाधिपते (वि.) ११७, ३१. ४०५.
[ह. व. ] त्वं सद्गतिः सितापारा (वि.) ५०५, ३१८. | दारुणरणे रणन्तं (अ.) ४२२, २९०.
[. श. श्लो. ९.] दिखातङ्गघटाविभक्त (अ.) २५७, २१६. वं समुद्रश्च दुर्वारौ (अ.) ६६३, ३९९, । [औ वि. च. पृ. १३८ भट्टप्रभाकरस्य]
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