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________________ भूमिका ८१ इन तीन भेदों में बाँटा गया है। इसकी संगति यह ज्ञात होती कि उस युग में सोने, चाँदी और तांबे के तीन प्रकार के नये कार्षापण सिक्के चालू हुए थे। इनमें से हाटक कार्षापण का उल्लेख काशिका के आधार पर कह चुके हैं। वे सिक्के वास्तविक थे या केवल गणित अर्थात् हिसाब किताब के लिये प्रयोजनीय थे इसका निश्चय करना संदिग्ध है, क्योंकि सुवर्ण कार्षापण अभी तक प्राप्त नहीं हुए। चाँदी के कार्षापण भी दो प्रकार के थे। एक नये और दूसरे मौर्य शुंगकाल के बत्तीस रत्ती वाले पुराण कार्षापण । चांदी के नये कार्षापण कौन से थे इसका निश्चय करना भी कठिन है। संभवतः यूनानी या शक-यवन राजाओं के ढलवाये हुए चांदी के सिक्के नये कार्षापण कहे जाते थे। सिक्कों के विषय में अंगविज्जा की सामग्री अपना विशेष महत्त्व रखती है । पहले की सूची में ( पृ० ६६ ) खतपक और सतेरक इन दो विशिष्ट मुद्राओं के नाम आ भी चुके हैं । मासक सिक्के भी चार प्रकार के कहे गये हैं- सुवर्ण मासक, रजत मासक, दीनार मासक और चौथा केवल मासक जो तांबे का था और जिसका संबंध खाणक नामक नये तांबे के सिक्के से था। दीनार मासक की पहचान भी कुछ निश्चय से की जा 'सकती है, अर्थात् कुषाण युग में जो दोनार नामक सोने का सिक्का चालू किया गया था और जो गुप्त युग तक चालू रहा, उसी के तौल-मान से संबंधित छोटा सोने का सिक्का दीनार मासक कहा जाता रहा होगा । ऐसे सिक्के उस युग में चालू थे यह अंगविज्जा के प्रमाण से सूचित होता है । वास्तविक सिक्कों के जो नमूने मिले हैं उनमें सोने के पूरी तौल के सिक्कों के अष्टमांश भाग तक के छोटे सिक्के कुषाण राजाओं की मुद्राओं में पाये गये हैं ( पंजाब संग्रहालय सूची संख्या ३४, ६७, १२३, १३५, २१२, २३७ ), किन्तु संभावना यह है कि षोडशांश तौल के सिक्के भी बनते थे ! रजतमासक से तात्पर्य चांदी के रौप्यमासक से ही था । सुवर्ण मासक यह मुद्रा ज्ञात होती है जो अस्सी रत्तो के सुवर्ण कार्षापण के अनुपात से पांच रत्ती तौल की बनाई जाती थी । इसके बाद कार्षापण और णाणक इन दोनों के निधान की संख्या का कथन एक से लेकर हजार तक किन लक्षणों के आधार पर किया जाना चाहिए यह भी बताया गया है। यदि प्रश्नकर्त्ता यह जानना चाहे कि गड़ा हुआ धन किसमें बँधा हुआ मिलेगा तो भिन्न-भिन्न अंगों के लक्षणों से उत्तर देना चाहिए - थैली में ( थविका ), चमड़े की थैली में ( चम्मकोस ), कपड़े की पोटली में ( पोट्टलिकागत ) अथवा अट्टियगत ( अंटी की तरह वस्त्र में लपेटकर ) सुत्तबद्ध, चक्कबद्ध, हेत्तिबद्ध - पिछले तीन शब्द विभिन्न बन्धनों के प्रकार थे जिनका भेद अभी स्पष्ट नहीं है । कितना सुवर्ण मिलने की संभावना है इसके उत्तर में पाँच प्रकार की सोने की तौल कही गई है, अर्थात् एक सुवर्णभर, अष्ट भाग सुबर्ण, सुवर्णमासक ( सुवर्ण का सोलहवाँ भाग ), सुवर्ण काकिणि ( सुवर्ण का बत्तीसवाँ भाग ) और पल ( चार कर्ष के बराबर ) | ५७ अध्याय का नाम णट्ठकोसय अध्याय है जिसमें कोश के नष्ट होने के संबंध में विचार किया गया है । नष्ट के तीन भेद हैं-नष्ट, प्रमृष्ट, ( जबरदस्ती छीन लिया गया ) और हारित ( जो चोरी हुआ हो ) । पुनः नष्ट के दो भेद किये गये हैं- सजीव और अजीव सजीव नष्ट दो प्रकार के हैं- मनुष्य योनिगत और तिर्यक् योनिगत । तिर्यक योनि के भो तोन भेद हैं-पक्षी, चतुष्पद और सरिसर्प । सरिसर्पों में दब्बीकर, मंडल और राजिल ( राइण ) नामक सर्पों का उल्लेख किया गया है। मनुष्य वर्ग में प्रेष्य, आर्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि का उल्लेख है । इनमें भी छोटे-बड़े अनेक भेद होते थे। संबंध की दृष्टि से भ्राता, वयस्य, भगिनी, श्याल, पवि, देवर, ज्येष्ठ, मातुल पुत्र, भगिनीपति, भ्रातृव्य, भ्रातृश्वसा, पितृश्वसा आदि के नाम हैं। अजीव पदार्थों की सूची में प्राण योनि के अन्तर्गत दूध, दही, तक्र, कूचिय ( कूर्चिक = रबड़ी), आमधित ( = आमथित मट्ठा या दूध में मथी हुई कोई वस्तु ), गुड़दधि, रसालादधि, मंधु (सं० मंथ ), परमण्ण ( परमान्म, खीर), दधिताव ( छोंकी हुई दही या कढी), Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001065
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year1957
Total Pages487
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size15 MB
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