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________________ अंगविणयं तीसवाँ अध्याय आभूषणों के विषय में है पृ० ६४, ७१ और ११६ पर भी आभूषणों का वर्णन आ चुका है। आभूषण तीन प्रकार के होते हैं । (१) प्राणियों के शरीर के किसी भाग से बने हुए ( पाणजोणिय ), जैसे शंख मुक्ता, हाथी दाँत, जङ्गली भैंसे के सींग आदि, बाल, अस्थि के बने हुए; (२) मूलजोणिमय अर्थात् काष्ठ, पुष्प, फल, पत्र आदि के बने हुए; (३) धातुयोनिगत जैसे- सुवर्ण, रूपा, ताँबा, लोहा, त्रपु (राँगा, काल लोह, आरकुड ( फूल, काँसा ), सर्वमणि, गोमेद, लोहिताक्ष, प्रवाल, रक्तक्षार मणि ( तामड़ा ), लोहितक आदि के बने हुए। आभूषणों में चांदी, शंख, मुक्ता, स्फटिक, विमलक, सेतक्षार मणि के नाम हैं। काले पदार्थों में सीसा, काललोह, अंजन और कालार मणि; नीले पदार्थों में सस्सक ( मरकत ) और नीलखार मणि; आग्नेय पदार्थों में सुवर्ण, रूपा, सर्व लोह, लोहिताक्ष, मसारकल्ल, क्षारमणि । धातुओं को पीटकर, क्षारमणि को उत्कीर्ण करके, और रत्नों को तराशकर . तथा चीरकोर कर बनाते हैं। मोतिओं को रगड़ कर चमकाया जाता / इसके बाद शरीर के भिन्न-भिन्न अवयवों के गहनों की सूचियाँ हैं। जैसे सिर के लिये ओचूलक ( अवचूलक या चोटी में गूंथने का आभूषण, चोटीचक्क ), दिविणद्धक ( कोई मांगलिक आभूषण, सम्भवतः मछलियों की बनी हुई सुनहली पट्टी जो बालों में बाई ओर सिर के बीच से गुद्दी तक खोंसकर पहनी जाती थी जैसे मथुरा की कुषाण कला में स्त्री मस्तक पर मिली है), अपलोकणिका ( यह मस्तक पर गवाचजाल या झरोखे जैसा आभूषण था जो कुषाण और गुप्तकालीन किरीटों में मिलता है), सीसोपक ( सिर का बोर ); कानों में तालपत्र, आबद्धक,. पलिकामदुघनक (दुघण या मुंगरी की आकृति से मिलता हुआ कान का आभूषण ), कुंडल, जणक, ओकासक (अवकाशक कान में छेद बड़ा करने के लिये लोड़े या डमरू के आकार का ), कण्णेपुरक, कण्णुप्पीलक ( कान के छेद में. पहनने का आभूषण ) इन आभूषणों का उल्लेख है । आँखों के लिए अंजन, भौहों के लिए मसी, गालों के लिये हरताल, हिंगुल और मैनसिल, एवं ओठो के लिए भलक्तक राग का वर्णन है। गले के लिए आभूषणों की सूची में कुछ महत्त्वपूर्ण नाम हैं; जैसे सुवण्णसुत्तक (= सुवर्णसूत्र, तिपिसाचक (त्रिपिशाचक, अर्थात् ऐसा आभूषण जिसके टिकरे मैं तीन पिशाच या यक्ष जैसी आकृतियाँ बनी हों), विज्जाधारक ( विद्याधरों की आकृतियों से युक्त टिकरा ), असीमालिका ( ऐसी माला जिसकी खुशियां या दाने खड्ड की आकृतिवाले हों ), पुच्छलक ( संभवतः वह हार जिसे गोपुच्छ या गोरवन कहा जाता है, देखिये अमरकोष - क्षारस्वामी), आवलिका (संभवतः इसे एकावली भी कहते थे ), सोमा ( बिमानाकृति मनकों का बना हुआ ग्रैवेयक । सोमाणक पारिभाषिक शब्द था । लोकपुरुष के ग्रीवा भाग में तीन-तीन विमानों की तीन पंक्तियाँ होती हैं जिनमें से एक विमान सोमणस कहलाता है), अट्टमंगलक (अष्ट मांगलिक चिह्नों की आकृति के टिकरों की बनी हुई माला जिसका उल्लेख हर्षचरित एवं महाष्युत्पत्ति में आया है। इस प्रकार की साला संकट से रक्षा के लिए विशेष प्रभावशाली मानी जाती थी), पेचुका ( पाठान्तर पेसुका, संभवतः वह कंठाभूषण जो पेशियों या टिकरों का बना हुआ हो ), वायुमुत्ता ( विशेष प्रकार के मोतियों की माला ), वुप्प सुत्त ( संभवतः ऐसा सूत्र जिसमें शेखर हो; वुप्प = शेखर), कट्ठेवट्टक ( अज्ञात ) । भुजाओं में अंगद और तुडिय ( = टड्डे) | हाथों में हस्तकटक, कटक, रुचक (निष्क), सूची, अंगुलियों में अंगुलेयक, मुद्देयक, वेंटक, (गुजराती वींटी=अंगूठी ) । कटी में कांचीकलाप, मेखला और जंघा में गंडूपदक ( गेंडोए की भांति का पैर का आभूषण ), नूपुर, परिहेरक ( = पारिहार्यक्क - पैरों के कड़े) और पैरों में खिखिखिक ( किंकिणी-घूंघरू ), खत्तियधम्मक ( संभवतः ब्रह आभूषण विशेष जिसे आजकल गूजरी कहते हैं ), पादमुद्रिका, पादोपक । इस प्रकार अंगविज्जा में आभूषणों की सामग्री बहुत से नये नामों से हमारा परिचय कराती है और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्व की है ( पृ० १६२-३ ) । वत्थजोणी नामक एकत्तीसवें अध्याय में वस्त्रों का वर्णन है । प्राणियों से प्राप्त सामग्री के अनुसार वस्त्र Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001065
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year1957
Total Pages487
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size15 MB
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