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________________ अंगविजापइण्णयं की आकृति बनी रहती थी और उस मुख में से मोतियों के झुग्गे लटकते हुए दिखाए जाते थे। मथुरा की मूर्तियों में ये स्पष्ट मिलते हैं। गरुडक और मगरक ये दो नाम मथुराकला में पहचाने जा सकते हैं। मथुरा के कुछ मुकुटों में गरुड़ की आकृति वाला आभूषण पाया जाता है। मगरक वही है जिसे बाणभट्ट और दूसरे लेखकों ने मकरिका या सोमंत-मकरिका कहा है। दो मकरमुखों की आकृतियों को मिलाकर यह आभूषण बनाया जाता था और दोनों के मुख से मुक्ताजाल लटकते हुए दिखाए जाते थे। इसी प्रकार बैल की आकृति वाला वृषभक, हाथी की आकृति वाला हत्थिक, और चक्रवाक मिथुन की आकृति से युक्त चक्रकमिथुनक (चक्ककमिहुणग) नामक आभूषण होता था। हाथ के कड़े और पैरों के खड़वे, णिडालमासक (माथे की गोल टिकुली), तिलक, मुह फलक (मुख फलक ), विशेषक, कुण्डल, तालपत्र, कर्णापीड, कर्णफूल, कान की कील और कर्ण लोढक नामक आभूषण ठेठ कुषाणकाल में व्यवहार में आते थे। इनमें से कर्णलोढक बिलकुल वही आभूषण है जिसे अंग्रेजी में वोल्यूट (Volute) कहते हैं और जो मथुरा की कुषाणकालीन स्त्रीमूतियों में तुरन्त पहचाना जा सकता है। यह आभूषण फिर गुप्त काल में देखने में नहीं आता। केयूर, तलव, आमेढ़क, पारिहार्य (विशेष प्रकार का कड़ा), वलय, हस्तकलापक, कंकण ये भा हाथ के आभूषण थे। हस्तकलापक में बहुत सी पतली चूड़ियों को किसी तार से एक में बाँध कर पहना जाता था, जैसा मथुरा शिल्प में देखा जाता है। गले के आभूषणों में हार, अर्धहार, फलहार, वैकक्षक, अवेयक का उल्लेख है। सूत्रक और स्वर्णसूत्र, स्वस्तिक और श्रीवत्सनामक आभूषण भी पहने जाते थे। किन्तु इन सब में महत्त्वपूर्ण और रोचक अष्टमंगल नाम का आभूषण है। बाण ने इसे ही अष्टमंगलकमाला कहा है, और महाव्युत्पत्ति की आभूषणसूची में भी इसका नाम आया है। इस प्रकार की माला में अष्टमांगलिक चिह्नों की आकृतियाँ रत्नजटित स्वर्ण की बनाकर पहनी जाती थी और उसे विशेष रूप से संकट से रक्षा करने वाला माना जाता था। सांची के तोरण पर भो मांगलिक चिह्नों से बने हुए कठुले उत्कीर्ण मिले हैं। मथुरा के आयागपटों पर जो अष्टमांगलिक चिह्न उत्कीर्ण हैं वे ही इन मालाओं में बनाए जाते थे। श्रोणि सूत्र, रत्नकलापक, ये कटिभाग के आभूषण थे। गंडूपक और खत्तियधम्मक पैरों के गहने थे। खत्तियधम्मक वर्तमान काल का गुजरी नामक आभूषण, ज्ञात होता है जो एक तरह का मोटा भारी पैरों से सटा हुआ कड़े के आकार का गहना है। पाएढ़क (पादवेष्टक ), पैरों के खडवे, पादकलापक (लच्छे), पादमासक (सुतिया कड़ी जिसमें एक गोल टिकुली हो) और पादजाल (पायल), ये पैरों के आभूषण थे। मोतियों के जाले आभूषणों के साथ मिलाकर पहने जाते थे जिनमें बाहुजालक, उरुजालक और सरजालक (कटिभाग में पहनने का आभूषण, जिसे गुजराती में सेर कहते हैं) का विशेष उल्लेख है। बर्तनों (पृ० ६५ ) में थाल, तश्तरी (तट्टक), कुंडा (श्रीकुंड ) का उल्लेख है। एक विशेष प्रकार का बर्तन पणसक होता था जो कटहल की आकृति का बनाया जाता था। इस प्रकार के एक समूचे बर्तन का बहुत ही सुन्दर नमूना अहिच्छत्रा की खुदाई में मिला है। हस्तिनापुर और राजघाट की खुदाई में भी पणसक नामक पात्र के कुछ टुकड़े पाये गये हैं। यह पात्र दो प्रकार का बनाया जाता था। एक बाहर की ओर कई पत्तियों से ढका हुआ और दूसरा बिना पत्तियों के हूबहू कटहल के फल के आकार का और लगभग उतना ही बड़ा। अर्धकपित्थ वह प्याला होना चाहिए जो आकृति में अति सुन्दर बनाया जाता था और आधे कटे हुए कैथ के जैसा होता था। ऐसे प्याले भी अहिच्छत्रा को खुदाई में मिले हैं। सुपतिढक या सुप्रतिष्ठित वह कटोरा या चषक होता था जिसके नीचे पेंदी लगी रहती थी और जिसे आजकल की भाषा में गोडेदार कहा जाता है। पुष्करपत्रक, मुंडक, श्रीकंसक, जंबूफलक, मल्लक, मूलक, करोटक, वर्धमानक ये अन्य बर्तनों के नाम थे। खोरा, खोरिया, बाटकी ( वट्टक नामक छोटी कटोरियां ) भी काम में आती थीं। शयनासनों का उल्लेख ऊपर आ चुका है। उनमें मसूरक उस तकिये को कहते थे जो गोल चपटा गाल के नीचे रखने के काम आता था, जिसे आजकल गलसूई कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001065
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year1957
Total Pages487
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size15 MB
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