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________________ अंगविजा जैन साहित्य में अंगविज्जा नामक एक प्राचीन ग्रन्थ है। यह कुषाण-गुप्त युग के संधि-काल का ज्ञात होता है, किन्तु अभी तक कहीं प्रकाशित नहीं हुआ। प्राकृत टैक्स्ट सोसाइटी नई दिल्ली की ओर से अब यह मूल्यवान् संग्रह ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है, जिसका सम्पादन मुनि श्री पुण्यविजय जी ने किया है। अंगविद्या प्राचीनकाल की एक लोकप्रचलित विद्या था। शरीर के लक्षणों से अथवा अन्य प्रकार के निमित्त वा चिह्नों से किसी के लिए शुभाशुभ फल का कथन इस विद्या का विषय था। पाणिनि ने ऋगयनादि गण (४. ३. ७३ ) में अंगविद्या, उत्पात, संवत्सर, मुहूर्त, निमित्त आदि विषयों पर लिखे जानेवाले व्याख्यान ग्रन्थों का उल्लेख किया है। ब्रह्मजाल सुत्त (दीघनिकाय) में निमित्त, उप्पाद और अंगविज्जा के अध्ययन को भिक्षुओं के लिए वर्जित माना है। किन्तु यह अंगविद्या क्या थी, इसको बताने वाला एक मात्र प्राचीन ग्रन्थ यही जैन साहित्य में 'अंगविज्जा' नाम से बच गया है, जिसकी गणना आगम साहित्य के प्रकीर्णक ग्रन्थों में की जाती है। इसमें कहा है कि दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग में अर्हत् वर्धमान महावीर ने निमित्त ज्ञान बताने वाले इस विषय का उपदेश किया था। अंग, स्वर, लक्षण, व्यंजन, स्वप्न, छींक, भौम, अंतरिक्ष, इस प्रकार निमित्त कथन के ये आठ आधार माने जाते थे। इन महानिमित्तों से अतीत और अनागत के भाव जानने का प्रयत्न किया जाता था। इनमें भी अंगविद्या सब निमित्तों में श्रेष्ठ समझी जातो थी। जैसे सूर्य सब रूपों को साफ दिखा देता है, ऐसे ही अंग से अन्य सब निमित्तों के बारे में बताया जा सकता है। यहाँ इस ग्रन्थ के अंगज्ञान के विषय में लिखने का उद्दश्य नहीं है, वरन् इसमें जो ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व की शब्दावली है उसकी कुछ सूचियों की ओर ध्यान दिलाना उद्दिष्ट है। इस ग्रन्थ में तत्कालीन जीवन के अनेक क्षेत्रों से सम्बन्धित लम्बी-लम्बी शब्द-सूचियां उपलब्ध होती हैं। ये सूचियां बौद्ध ग्रन्थ महाव्युत्पत्ति की सूचियों के समान अति महत्त्वपूर्ण हैं। इन दोनों ग्रन्थों का तुलनात्मक दृष्टि से सांस्कृतिक अध्ययन भी आवश्यक है। ग्रन्थ में कुल साठ अध्याय हैं। कहीं-कहीं लम्बे अध्यायों में पटल नामक अवान्तर विभाग हैं, जैसे आठवें अध्याय में विविध विषय संबधी तीस पटल और नौवें अध्याय में १८६८ कारिकाएं जिनमें २७० विविध विषयों का निरूपण है। आरम्भ के आध्यायों में अंगविद्या की उत्पत्ति, स्वरूप, शिष्य के गुण-दोष, अंगविद्या का माहात्म्य, आदि प्रास्ताविक विषयों का विवेचन है। पहले अध्याय में अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु-इन्हें नमस्कार किया गया है। इस विद्या का उपदेश महापुरुष ने किया था और ये भगवान् महावीर ही ज्ञात होते हैं। निमित्तों के आठ प्रकार हैं-अंग, स्वर, लक्षण, व्यञ्जन अर्थात् तिल आदि चिह्न, स्वप्न, छिन्न, भौम (पृथिवी सम्बन्धी निमित्त) और अन्तरिक्ष । इन निमित्तों में अंग का विशेष महत्त्व है। यह विद्या बारहवें अंग दिट्ठिवाय के अन्तर्गत मानी जाती थी, जिसका भद्रबाहु के शिष्य स्थूलभद्र के समय से लोप हो गया था। उसके बाद ग्रन्थ के साठ अध्यायों के नामों की सूची दी गई है। दूसरे अध्याय में जिन भगवान् की स्तुति है। अध्याय तीसरे से पांचवें तक में शिष्य के चुनाव और शिक्षण के नियम बताये गये हैं। ब्रह्मचर्य पूर्वक गुरुकुल में वास करनेवाले श्रद्धालु शिष्य को ही इस शास्त्र का उपदेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001065
Book TitleAngavijja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Granth Parishad
Publication Year1957
Total Pages487
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Jyotish, & agam_anykaalin
File Size15 MB
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