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[चार तीर्थंकर : २
परंपरा या समाज के मानस में श्रद्धा का स्थान पाये हुये किसी प्राचीन या अतिप्राचीन महापुरुष के जीवनचरित्र के आसपास कालक्रम से और श्रद्धा के कारण जो अनेक कल्पनाओं के ताने-बाने हों और उनमें विविध रंग भरे हों, उनकी वास्तविकता की दृष्टि से छानबीन करके उसमें से एक सामान्य ऐतिहासिक सत्य निकालना और उस सत्य का वर्तमान जीवन के जटिल प्रश्नों के सुलझाने में तथा भावी जीवन के निर्माण में उपयोग करना ।
ऋषभदेव सिर्फ जैनों के ही नहीं हैं !
साधारण तौर पर जैन तथा जैनेतर दोनों समाजों में और कुछ अंश तक पढ़े-लिखे विद्वत् वर्ग में भी ऐसी मान्यता प्रचलित है कि ऋषभदेव केवल जैनों के ही उपास्यदेव तथा अवतारी पुरुष हैं । अधिकांश जैन यही समझते हैं कि जैन परंपरा के बाहर ऋषभदेव का स्थान नहीं है और वे जैन मन्दिर, जैन तीर्थ तथा जैन उपासना में ही प्रतिष्ठित हैं । लगभग सभी जैनेतर भी ऋषभदेव को केवल जैनों के ही उपास्यदेव समझ कर यह विचार करना भूल गये हैं कि ऋषभदेव का स्थान जैनेतर परंपरा में है या नहीं और अगर है तो कहाँ और कैसा ?
जैन या जैनेतर दोनों वर्गों के लोगों का ऊपर बतलाया हुआ भ्रम दूर करने के लिए हमारे पास कितने ही प्रमाण हैं जो शास्त्रबद्ध भी हैं और व्यवहारसिद्ध भी । जैन तीर्थ, मन्दिर और गृहचैत्यों में प्रतिष्ठित ऋषभदेव की मूर्ति, उनकी प्रतिदिन होने वाली पूजा, आबाल-वृद्ध जैनों में गाया और पढ़ा जाने वाला ऋषभचरित्र और तपस्वी जैन स्त्री-पुरुषों द्वारा अनुकरण किया जाने वाला ऋषभदेव का वार्षिक तप - यह सब जैन परंपरा में ऋषभदेव के प्रति उपास्यदेव जैसी श्रद्धा और ख्याति के गहरे मूल को तो सूचित करते ही हैं, पर ऋषभदेव की उपासना और ख्याति जैनेतर - परंपरा के अति प्रतिष्ठित और विशिष्ट माने जाने वाले साहित्य में और उसी तरह छोटे से छोटे फिरके तक में मौजूद है ।
भागवत में ऋषभदेव
ब्राह्मण-परंपरा और उसमें भी खासकर वैष्णव परंपरा का बहुमान्य और सर्वत्र अतिप्रसिद्ध ग्रंथ भागवत है जिसे भागवत पुराण
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