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[ दीर्घ तपस्वी महावीर : ४३
के जीवन का मुख्य भाग विदेह और मगध में व्यतीत हुआ है । ऐसा जान पड़ता है कि वे अधिक से अधिक यमुना के किनारे तक आये होंगे । श्रावस्ती, कौशांबी, ताम्रलिप्त, चम्पा और राजगृही इन शहरों में वह बार-बार आते-जाते और रहते थे ।
उपसंहार
श्रमण भगवान् महावीर की तपस्या और उनके शान्तिपूर्ण दीर्घजीवन और उपदेश से उस समय मगध, विदेह, काशी, कोशल और दूसरे कितने ही प्रदेशों के धार्मिक और सामाजिक जीवन में बड़ी क्रान्ति हो गई थी । उसका प्रमाण केवल शास्त्र के पन्नों में ही नहीं, बल्कि हिन्दुस्तान के मानसिक जगत् में अब तक जागृत अहिंसा और तप का स्वाभाविक अनुराग है। आज से २४५६ वर्ष पूर्व राजगृही के पास पावापुरी नामक पवित्र स्थान में कार्त्तिक कृष्णा अमावस की रात को इस तपस्वी का ऐहिक जोवन पूरा हुआ ( निर्वाण हुआ) और उनके स्थापित संघ का भार उनके प्रधान-शिष्य सुधर्मा स्वामी पर आ पड़ा । ई. स. १६३३]
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