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[ दीर्घ तपस्वी महावीर : ४१
३६००० होने का उल्लेख मिलता है । इसके सिवाय लाखों की संख्या में गृहस्थ शिष्यों के होने का भी उल्लेख है । त्यागी और गृहस्थ इन दोनों वर्गों में चारों वर्णों के स्त्री-पुरुष सम्मिलित थे । इन्द्रभूति आदि ११ गणधर ब्राह्मण थे । उदावी, मेघकुमार आदि अनेक क्षत्रिय भी भगवान् के शिष्य हुए थे । शालिभद्र इत्यादि वैश्य और महतारज तथा हरिकेशी जैसे अतिशूद्र भी भगवान् की पवित्र दीक्षा का पालन कर उच्च पथ को पहुंचे थे । साध्वियों में चन्दनबाला क्षत्रिय-पुत्री थीं, देवानन्दा ब्राह्मणी थीं । गृहस्थों में उनके मामा वैशालीपति चेटक, राजगृही के महाराजा श्रेणिक ( बिम्बसार ) और उनका पुत्र कोणिक ( अजातशत्रु) आदि अनेक क्षत्रिय भूपति थे | आनन्द, कामदेव आदि प्रधान दस श्रावकों में शकडाल कुम्हार जाति का था और शेष ६ वैश्य खेती और पशु-पालन पर निर्वाह करने वाले थे । ढंक कुम्हार होते हुए भी भगवान् का समझदार और दृढ़ उपासक था । खन्दक, अम्बड़ आदि अनेक परिव्राजक तथा सोमील आदि अनेक विद्वान् ब्राह्मणों ने श्रमण भगवान् का अनुसरण किया था । गृहस्थ उपासिकाओं में रेवती, सुलसा और जयन्ती के नाम प्रख्यात हैं । जयन्ती जैसी भक्त थी वैसी ही विदुषी भी थी । आजादी के साथ भगवान् से प्रश्न करती और उत्तर सुनती थी । भगवान् ने उस समय स्त्रियों की योग्यता किस प्रकार आँकी, उसका यह उदाहरण है । महावीर के समकालीन धर्मप्रवर्तकों में आजकल कुछ थोड़े ही लोगों के नाम मिलते हैं - तथागत गौतमबुद्ध, पूर्ण कश्यप, संजय वेलट्ठपुत्त, पकुत्र कच्चायत, अजित केस कम्बलि और मंखली गोशालक ।
समझौता -
श्रमण भगवान् के पूर्व से ही जैन- सम्प्रदाय चला आ रहा था, जो निर्ग्रन्थ के नाम से विशेष प्रसिद्ध था । उस समय प्रधान निर्ग्रन्थ केशीकुमार आदि थे । वे सब अपने को श्री पार्श्वनाथ की परम्परा के अनुयायी मानते थे । वे कपड़े पहनते थे और सो भी तरह-तरह के रंग के । इस प्रकार वह चातुर्याम धर्म अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह इन चार महाव्रतों का पालन करते थे ।
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