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________________ [ भगवान् ऋषभदेव और उनका परिवार : २१ के हाथों से जो श्रावक-वर्ग स्थापित कराया है और काम-धंधा छोड़कर सिर्फ शास्त्र पढ़ने में मशगूल रहने तथा राज्य के रसोईघर में जाकर जीमने व भरत द्वारा रचा हआ उपदेश पाठ भरत को ही सुना देने की जो बात कही है वह साधुसंस्था के लिए आवश्यक उम्मीदवारों की पूर्णतया पूर्ति करने वाले जीवित यन्त्र की ही बात है और वह जैन-परम्परा में पूर्व से चले आते हुए विकृत निवृत्तिधर्म को सूचित भर करती है। वर्तमान जैनसमाज में त्यागी वर्ग जैसी मनोवृत्ति रखता है, जैसे संस्कार का पोषण करता है और दीक्षा के निमित्त जो दाँवपेच रचता है, उसकी जड़ें तो सैकड़ों वर्ष पहले ही डाल दी गई हैं। हेमचन्द्र के समय में भी ये विकृतियां थीं। फर्क इतना ही था कि अमुक परिस्थिति के कारण वे विकृतियाँ ध्यान में नहीं आई थीं या किसी ने उनकी तरफ लक्ष्य नहीं दिया था। अगर बालबच्चे वाला सारा एक वर्ग कामधंधा छोड़कर पराश्रयी बनकर धर्म पालन करे, यह स्वाभाविक हो तो उसमें दोष आना ही न चाहिए, पर सच्ची बात यह है कि जैन-परम्परा में त्यागी वर्ग ने निवृत्तिधर्म की एक ही बाजू को पूर्ण जीवन मान कर उसी के विचारों का सेवन किया और उनका प्रचार किया। इसका परिणाम यह हुआ कि वे गृहस्थ और त्यागी के जीवन में अनिवार्य रूप से आवश्यक कर्मों और प्रवृत्तियों का महत्त्व ही भूल गये । इसी से हम आज भरत के सहज प्रवृत्तिधर्म में विकृत निवृत्तिधर्म की छाप देखते हैं। भरत के रचे हुए उपदेश-मन्त्र का अर्थ यह है कि तुम पराजित हुए हो, तुममें भय बढ़ रहा है, इसलिए तुम किसी को न मारो।' कितना सुन्दर और पारमार्थिक, सदा स्मरणीय उपदेश ! परन्तु इस उपदेश के सुनने में असंगति कितनो है ? उपदेशतत्त्व का विचार करने वाले वेदप्रणेता भरत स्वयं ही हैं। इसको शब्दों में उतारने वाले भी भरत स्वयं हैं। परन्तु भरत को अपने हो विचार का जितोऽस्मि केन ? हुं ज्ञातं कषायैर्वर्धते च भीः । कुतो मे ? तेभ्ध एवेति मा हन्यां प्राणिनस्ततः ॥२३२॥ -त्रिषष्टि. १, ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001054
Book TitleChar Tirthankar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi, Shobhachad Bharilla, Bhavarmal Singhi, Sagarmal Jain, Dalsukh Malvania
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1989
Total Pages158
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, History, & E000
File Size8 MB
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